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Raghvendra Dwivedi's Photo'

राघवेंद्र द्विवेदी

1980 | दिल्ली, भारत

राघवेंद्र द्विवेदी के शेर

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ज़िंदगी से तंग कर ख़ुद-कुशी कर ली किसी ने

और कोई ख़ुद-कुशी करता रहा है ज़िंदगी-भर

ख़ाक से पैदा हुआ है ख़ाक में मिल जाएगा

एक कुल्हड़ की तरह है आदमी की ज़िंदगी

मिले दो वक़्त की रोटी सुकूँ से नींद जाए

यही पहली ज़रूरत है जिसे हम भूल जाते हैं

इक तरीक़ा ये भी था फल बाँटते वो उम्र-भर

भाइयों ने पेड़ काटा और लकड़ी बाँट ली

सब का अलग अंदाज़ था सब रंग रखते थे जुदा

रहना सभी के साथ था सो ख़ुद को पानी कर लिया

किसी का जून कभी ख़त्म ही नहीं होता

किसी के पास दिसम्बर क़ियाम करता है

ज़िंदगी मिट्टी की सूरत चाक पर रक्खी हुई है

और हम बनते-बिगड़ते अपनी क़िस्मत देखते हैं

बिना देखे किसी से इश्क़ कर के सोचता हूँ मैं

नहीं देखा है कुछ तो इश्क़ आख़िर देखता क्या है

याद करने की वो शिद्दत खो गई जाने कहाँ

अब किसी को हिचकियाँ भी देर तक आती नहीं

ख़ूबसूरत रूह का इक पैरहन है जिस्म लेकिन

जिस्म के मलबे में सब ने रूह अपनी दफ़्न कर दी

चाँद तारे तोड़ लाना ये भी कोई काम है

हर क़दम पर साथ मेरे उम्र-भर चल के दिखा

अब समझ आया हमें ये रूह क्यों बेचैन है

फिर रहे हैं ज़ेहन पर हम बोझ लादे जिस्म का

साथ चल कर देख मेरे और मुझ को आज़मा

क्यों यक़ीं करता है लोगों से सुनी हर बात पर

जो समझते थे हमीं से रौशनी दुनिया में है

वक़्त ने बे-वक़्त उन को रख दिया है ताक़ पर

माना कि मुझ में तह बहुत हैं और गहरा भी हूँ मैं

तुम ने भी तो मुझ को कभी खोला नहीं तरतीब से

मैं ज़रा सा क्या खुला वो ख़ुद सिमटने लग गया

जो कहा करता था मुझ से खुल के क्यों मिलते नहीं

माना कि हम-ख़याल नहीं हैं तो क्या हुआ

आँसू ख़ुशी के साथ ही रहते हैं आँख में

बहुत दुश्वार है जीना किसी भी बंद कमरे में

अगर हो बंद दरवाज़ा तो खिड़की खोल कर रखना

शहर के पक्के मकानों में दरारें गईं

गाँव के कच्चे घरों की नींव पक्की थी बहुत

देरी से मिलने का जो ग़म तुझ को परेशाँ कर रहा

दोस्त हम भी हैं उसी ताख़ीर के मारे हुए

सभी को चाहिए अपने घरों में रौशनी लेकिन

चराग़ों को जलाने का हुनर सब को नहीं आता

वो इशारा कर के पीछे हट गया था एक दिन

उस इशारे को समझने में लगा हूँ आज तक

अजब ये बात है हर दम हमारा सच परखता है

कभी तो झूट उस का भी कसौटी पर कसा जाए

वो कहानी छोड़ती है मुद्दतों अपना असर

जिस कहानी का कभी किरदार मरता ही नहीं

जाने ज़िंदगी क्या देख कर रिश्ता निभाती है

किसी को दे दिया सब कुछ किसी को कुछ नहीं मिलता

जाने कितनी बार सिक्कों को गिना करते थे हम

नोट की गड्डी ने हम से रेज़गारी छीन ली

ठीक हो सकते हैं वो जो जिस्म से बीमार हैं

ज़ेहन से बीमार हैं जो उन का दरमाँ कुछ नहीं

बात करना प्यार की आसान से आसान है

इश्क़ करना करते रहना है कठिन से भी कठिन

बढ़ रहा है ज़िंदगी का कैनवस हर दिन मगर

रंग गहरा अब नहीं दिखता किसी तस्वीर में

दौलत मिली तो ज़िंदगी में गई लज़्ज़त मगर

आँखों से नींदें उड़ गईं दिल का सुकूँ भी छिन गया

साथ भी छूटा नहीं कोई गिला-शिकवा नहीं

मैं निकल कर गया उस की गली से इस तरह

आग से रिश्ता है मेरा और दरिया भी है अपना

आए दिन दोनों के झगड़े में उलझ कर रह गया हूँ

ज़िंदगी जब साँस तेरे पास ही गिरवी रखी है

क्यों नहीं देती हमें तू ज़िंदगी जीने की मोहलत

इक तिरे कहने से मेरा कम नहीं किरदार होगा

ये अलग है बात मैं तेरी कहानी में नहीं हूँ

धूप जाड़ा दर्द दुनिया भूक पत्थर प्यास आँसू

जाने किस किस से मिला हूँ ज़िंदगी तेरे लिए

जाने कितने ही शनावर इश्क़ के दरिया में डूबे

कैसे बचता मैं भी उस दरिया से जो प्यासा बहुत है

है कोई शामिल हमारी ज़िंदगी के फ़ैसलों में

बच के जाना था जहाँ से हम वहीं टकरा गए हैं

चराग़ों को जलाना है जलाओ तुम मगर पहले

हवा के दिल में क्या है ये पता करना ज़रूरी है

मोहब्बत का नतीजा है जो अब तक साथ हैं दोनों

अगर कुछ और होता तो जुदा हम हो गए होते

कहीं कोई दिया जलता है तो उस के इशारे पर

हवा भी उस की मर्ज़ी से चला करती है दुनिया में

राधा के साथ साथ हैं सखियाँ भी बावरी

मोहन की बाँसुरी का यही तो कमाल है

दीवार के उस पार जाने की तमन्ना है तो फिर

हिम्मत जुटा कर तुम कभी दीवार ढाते क्यों नहीं

रहते हैं मुझ में एक नहीं दो मिज़ाज-दाँ

शाइ'र का रंग और सहाफ़ी का और है

अच्छे-भले जो लोग ख़द्द-ओ-ख़ाल से लगे

लेकिन वो चाल-ढाल से कम-ज़र्फ़ थे बहुत

इक रौशनी अजब सी दिखी उस किताब में

जिस में लिखा था इश्क़ इबादत से कम नहीं

ख़्वाब पूरे हो गए तो लुत्फ़ घटने लग गया

ज़िंदगी से कुछ शिकायत दिल में रहनी चाहिए

पहले तो बोलते हैं भरोसा है आप पर

फिर ये भी चाहते हैं वफ़ा का हिसाब दूँ

इल्तिजा करते हुए प्यासा परिंदा मर गया

अब तो दरिया को हया से डूब मरना चाहिए

इतना कहा गया था कि ज़ेवर उतार दें

और आप ने ज़मीन पे ईमान रख दिया

लाज़िम है इंतिज़ार करूँगा मैं उम्र-भर

मुमकिन अगर हो तुम भी मिरी राह देखना

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