राजा मेहदी अली ख़ाँ के शेर
किस की आँखों से गिरा है ये
ये समुंदर है बड़ा सा आँसू
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पहले हम को बहन कहा अब फ़िक्र हमीं से शादी की
ये भी न सोचा बहन से शादी कर के क्या कहलाएँगे
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उड़ा लेती हैं सब नक़दी तलाशी जेब की ले कर
हम अपनी ही कमाई उन से डर डर के छुपाते हैं
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जब अपना दुख सुनाऊँ क़मर के पिदर को मैं
कहते हैं देख आग लगा दूँगा घर को मैं
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'ज़ौक़' कितने रूपे कमाता था
अपनी बीवी से क्यूँ छुपाता था
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वो सब आ के इज़हार-ए-मातम करेंगे
वो बैठक में रोएँगे चाय पिएँगे
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कर लीजे 'रज़िया' से मोहब्बत हम पर कीजे नज़र-ए-करम
वो बे-चारी फँस जाएगी हम उस को समझाएँगे
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मैं तुम पे हूँ 'जाँ-निसार-अख़्तर' क़सम है 'मुंशी-फ़िदा-अली' की
बहुत दिनों से मैं तुम पे 'साहिर' से जादू टोने करा रहा हूँ
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अगर हो तुम 'हाजरा' तो फिर मुझ से मिल के 'मसरूर' क्यूँ नहीं हो
तुम्हारे आगे 'ओपेंदर-नाथ-अश्क' बन के आँसू बहा रहा हूँ
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बुरी बुरी नज़रें चेहरे पर डाल रहे हैं उफ़ तौबा
हम अपने दोनों गालों को जा के अभी धो आएँगे
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बिल्लू को चुप कराऊँ कि मारूँ क़मर को मैं
फर्श-ए-ज़मीन धोऊँ कि मांजूँ कुकर को मैं
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ख़ुदाया आज के शौहर हैं या मासूम बच्चे हैं
ज़रा सा घूर ले बीवी तो झट ये सहम जाते हैं
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शेरों की तरह टूट पड़े आ के मेज़ पर
जो चीज़ भी मिली वो चबाते चले गए
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बिस्मिल्लाह अरे-वाह मैं क़ुर्बान मैं क़ुर्बान
क्या ख़ूब लगी है कमंद अल्लाह तिरी शान
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