राम अवतार गुप्ता मुज़्तर के शेर
रह-ए-क़रार अजब राह-ए-बे-क़रारी है
रुके हुए हैं मुसाफ़िर सफ़र भी जारी है
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बे-दीन हुए ईमान दिया हम इश्क़ में सब कुछ खो बैठे
और जिन को समझते थे अपना वो और किसी के हो बैठे
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तेरा होना न मान कर गोया
तुझ को तस्लीम कर रहा हूँ मैं
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दिल का सुकून रिज़्क़ के हंगामे खा गए
सुख आदमी का चंद निवालों ने डस लिया
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शाम-ए-अवध ने ज़ुल्फ़ में गूँधे नहीं हैं फूल
तेरे बग़ैर सुब्ह-ए-बनारस उदास है
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सफ़र का रुख़ बदल कर देखता हूँ
कुछ अपनी सम्त चल कर देखता हूँ
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दुनिया तेरे नाम से मुझ को पहचाने
इश्क़ में ऐसा रुस्वा कर दे या-अल्लाह
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लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं
अपनी तकमील कर रहा हूँ मैं
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नवाज़ा है मुझे पत्थर से जिस ने
उसे मैं फूल दे कर देखता हूँ
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न आए मेरे होंटों तक जो पैमाना नहीं आता
मिरी ख़ुद्दारियों को हाथ फैलाना नहीं आता
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मैं कैसे तय करूँ बे-सम्त रास्तों का सफ़र
कहाँ है शहर-ए-तमन्ना कोई पता तो दे
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देख लिया क्या जाने शाम की सूनी आँखों में
झील में सूरज अपनी सारी लाली डाल गया
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जो छू लूँ आसमाँ पाँव की धरती खींच लेता है
वो मुझ को क्यूँ मिरे क़द से बड़ा होने नहीं देता
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ज़रा देखें तो दुनिया कैसे कैसे रंग भरती है
चलो हम अपने अफ़्साने का ग़म उनवान रखते हैं
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नामूस-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-इंसाँ में ढाल कर
सूती है रात जाम से सूरज निकाल कर
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