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राणा गन्नौरी

1938 | दिल्ली, भारत

राणा गन्नौरी के शेर

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ख़ुद तराशना पत्थर और ख़ुदा बना लेना

आदमी को आता है क्या से क्या बना लेना

तुम्हारी राह में आँखें बिछाए बैठा हूँ

तुम्हारे आने की हालाँकि कोई आस नहीं

ज़िंदगी का भी किया भरोसा है

ज़िंदगी की क़सम भी क्या खाऊँ

हमारा दिल तो ग़म में भी ख़ुशी महसूस करता है

वही मुश्किल में रहते हैं जो ग़म को ग़म समझते हैं

हर इक की है पसंद अपनी हर इक का है मिज़ाज अपना

वफ़ा मुझ को पसंद आई पसंद आई जफ़ा उस को

अब मुझे थोड़ी सी ग़फ़लत से भी डर लगता है

आँख लगती है कि दीवार से सर लगता है

ख़ुदा मैं सुन रहा हूँ आहटें उस वक़्त की

जब तिरी दुनिया का हर बंदा ख़ुदा हो जाएगा

रहे ख़याल हिक़ारत से देखने वालो

हक़ीर लोग बड़े आदमी निकलते हैं

तुम्हें काश कोई राज़ ये समझा गया होता

अगर सुनते तो कहने का सलीक़ा गया होता

ख़ुशी हम से किनारा कर रही है

हमें ग़म को भी अपनाना पड़ेगा

रखो तुम बंद बे-शक अपनी घड़ियाँ

समय तो रात दिन चलता रहेगा

हर शख़्स यहाँ साहिब-ए-इदराक नहीं है

हर शख़्स को तुम साहिब-ए-इदराक कहना

हम ने दुनिया से सुलूक ऐसा किया है 'राना'

हम होंगे तो बहुत याद करेगी दुनिया

रखना हमेशा याद ये मेरा कहा हुआ

आता नहीं है लूट के पानी बहा हुआ

मसअले हल करते करते आदमी का ज़ेहन भी

बे-तरह उलझा हुआ इक मसअला हो जाएगा

आज बार-ए-गोश है मेरी सदा उस को मगर

मेरे शेरों को ज़माना देर तक दोहराएगा

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