रंजूर अज़ीमाबादी के शेर
मुझ को काफ़ी है बस इक तेरा मुआफ़िक़ होना
सारी दुनिया भी मुख़ालिफ़ हो तो क्या होता है
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बुतों में किस बला की है कशिश अल्लाह ही जाने
चले थे शौक़-ए-काबा में सनम-ख़ाने में जा निकले
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अगर चिलमन के बाहर वो बुत-ए-काफ़िर-अदा निकले
ज़बान-ए-शैख़ से सल्ले-अला सल्ले-अला निकले
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दिखा कर ज़हर की शीशी कहा 'रंजूर' से उस ने
अजब क्या तेरी बीमारी की ये हकमी दवा निकले
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देता है मुझ को चर्ख़-ए-कुहन बार बार दाग़
उफ़ एक मेरा सीना है उस पर हज़ार दाग़
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होता है साफ़ रू-ए-किताबी से ये अयाँ
काफ़िर है गो वो बुत मगर अहल-ए-किताब है
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