रज़ी रज़ीउद्दीन के शेर
उस का जल्वा दिखाई देता है
सारे चेहरों पे सब किताबों में
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नश्शा-ए-यार का नशा मत पूछ
ऐसी मस्ती कहाँ शराबों में
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तमाम रात तिरा इंतिज़ार होता रहा
ये एक काम यही कारोबार होता रहा
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इस अँधेरे में जलते चाँद चराग़
रखते किस किस का वो भरम होंगे
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ये ज़ुल्फ़-ए-यार भी क्या बिजलियों का झुरमुट है
ख़ुदाया ख़ैर हो अब मेरे आशियाने की
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जगह बची ही नहीं दिल पे चोट खाने की
उठा लो काश ये आदत जो आज़माने की
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दिल को जलाए रक्खा है हम ने चराग़ सा
इस घर में हम हैं और तिरा इंतिज़ार है
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तुम न थे तो यहाँ पे कोई न था
आज कितने दिवाने बैठे हैं
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दुश्मन-ए-जाँ हैं सभी सारे के सारे क़ातिल
तू भी इस भीड़ में कुछ देर ठहर जा ऐ दिल
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तुम्हारे शहर में क्यूँ आज हू का आलम है
सबा इधर से गुज़र कर उधर गई कि नहीं
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क़ल्ब-ओ-जिगर के दाग़ फ़रोज़ाँ किए हुए
हैं हम भी एहतिमाम-ए-बहाराँ किए हुए
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छलका पड़ा है चेहरों से इक वहशत-ए-जुनूँ
फैला पड़ा है इश्क़ का बाज़ार ख़ैर हो
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चश्मा-ए-नाब न बढ़ कर जुनूँ सैलाब बने
बह न जाए कि ये मिट्टी का मकाँ है अब के
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दीवाना-ए-ख़िरद हो कि मजनून-ए-इश्क़ हो
रहना है उस को चाक-गरेबाँ किए हुए
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