रेहाना रूही के शेर
हर दिसम्बर इसी वहशत में गुज़ारा कि कहीं
फिर से आँखों में तिरे ख़्वाब न आने लग जाएँ
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मैं ये भी चाहती हूँ तिरा घर बसा रहे
और ये भी चाहती हूँ कि तू अपने घर न जाए
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कौन कहाँ तक जा सकता है
ये तो वक़्त बता सकता है
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जो भीक माँगते हुए बच्चे के पास था
उस कासा-ए-सवाल ने सोने नहीं दिया
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