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रोहित राही

1993

रोहित राही के शेर

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हूँ ख़फ़ा सारे ज़माने से फ़क़त तेरे लिए

'इश्क़ की तौहीद मेरे तू कभी तो जानेगा

हम-मिज़ाजी का यूँ दा'वा करो

आश्ना होना मिरा आसाँ नहीं

पत्थरों के ये सनम सुनते हैं कब

कैफ़ियत अपनी ख़ुदा ही जाने हैं

'इश्क़ की फ़ितरत सदा आज़ाद है

क़ैद में दैर-ओ-हरम की कब रहा

इस तरह दुनिया से मेरी है निबाह

आंधियों में दीप गोया जलता हो

'इश्क़ की कोई कसक है या करम उर्दू का है

बहर में ढलता है यारों ख़ुद-ब-ख़ुद मेरा कलाम

पारसाई का तुझे 'रोहित' मिलेगा क्या समर

कहते हैं दुनिया जिसे सदियों से बे-तरतीब है

देख कर 'आलम का 'आलम क्या अलम अब हम करें

जब ख़ुदा ख़ुद भूल बैठा कह के कुन 'रोहित' मियाँ

मुख़्तलिफ़ अंदाज़ है मेरा मगर

दिल में है सूरत पुरानी सी वही

दिल के हर गोशे में जग अच्छा नहीं

कुछ ख़ला भी रख ख़ुदा के वास्ते

हो हो नज़र-ए-करम लेकिन सनम

अंजुमन में आप की हाज़िर तो हैं

बाब सब हम ने मोहब्बत के पढ़े

'मीर' सा होगा कोई फिर कभी

क़ैद क्या दैर-ओ-हरम की ज़ाहिदो

जल्वा-गर है हर तरफ़ मेरा सनम

इन बहारों की हवाओं को शिकायत हम से है

हम कली को लम्स से गुल करते हैं जान-ए-जिगर

आरज़ू इक 'इश्क़ की लाई 'अदम से दहर तक

कैफ़ियत ये पाने को पीता है आदम ज़हर तक

ये गरजना बादलों का यूँ लगे

बात मुझ से करता हो जैसे ख़ुदा

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