रोहित राही के शेर
हूँ ख़फ़ा सारे ज़माने से फ़क़त तेरे लिए
'इश्क़ की तौहीद मेरे तू कभी तो जानेगा
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हम-मिज़ाजी का न यूँ दा'वा करो
आश्ना होना मिरा आसाँ नहीं
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पत्थरों के ये सनम सुनते हैं कब
कैफ़ियत अपनी ख़ुदा ही जाने हैं
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'इश्क़ की फ़ितरत सदा आज़ाद है
क़ैद में दैर-ओ-हरम की कब रहा
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इस तरह दुनिया से मेरी है निबाह
आंधियों में दीप गोया जलता हो
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'इश्क़ की कोई कसक है या करम उर्दू का है
बहर में ढलता है यारों ख़ुद-ब-ख़ुद मेरा कलाम
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पारसाई का तुझे 'रोहित' मिलेगा क्या समर
कहते हैं दुनिया जिसे सदियों से बे-तरतीब है
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देख कर 'आलम का 'आलम क्या अलम अब हम करें
जब ख़ुदा ख़ुद भूल बैठा कह के कुन 'रोहित' मियाँ
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मुख़्तलिफ़ अंदाज़ है मेरा मगर
दिल में है सूरत पुरानी सी वही
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दिल के हर गोशे में जग अच्छा नहीं
कुछ ख़ला भी रख ख़ुदा के वास्ते
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हो न हो नज़र-ए-करम लेकिन सनम
अंजुमन में आप की हाज़िर तो हैं
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बाब सब हम ने मोहब्बत के पढ़े
'मीर' सा होगा न कोई फिर कभी
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क़ैद क्या दैर-ओ-हरम की ज़ाहिदो
जल्वा-गर है हर तरफ़ मेरा सनम
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इन बहारों की हवाओं को शिकायत हम से है
हम कली को लम्स से गुल करते हैं जान-ए-जिगर
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आरज़ू इक 'इश्क़ की लाई 'अदम से दहर तक
कैफ़ियत ये पाने को पीता है आदम ज़हर तक
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ये गरजना बादलों का यूँ लगे
बात मुझ से करता हो जैसे ख़ुदा
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