सैफ़ी आज़मी के शेर
काश इतना ही समझ लेते ये अहल-ए-कारवाँ
फ़ासले बढ़ जाते हैं सहमी हुई रफ़्तार से
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आँख नम रुख़ पर उदासी दर्द भी दिल के क़रीब
क्या मोहब्बत आ गई है अपनी मंज़िल के क़रीब
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हर लफ़्ज़-ए-आरज़ू में झलक उन की आ गई
उन को निकालता ही रहा दास्ताँ से मैं
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ख़ुशी से फूलें न अहल-ए-सहरा अभी कहाँ से बहार आई
अभी तो पहुँचा है आबलों तक मिरा मज़ाक़-ए-बरहना-पाई
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