साइमा इसमा के शेर
ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते
लोग तो पारा पारा हो कर जुड़ जाते हैं लम्हे में
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न-जाने कैसी निगाहों से मौत ने देखा
हुई है नींद से बेदार ज़िंदगी कि मैं हूँ
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टैग : बेदार
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नक़्श जब ज़ख़्म बना ज़ख़्म भी नासूर हुआ
जा के तब कोई मसीहाई पे मजबूर हुआ
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कभी कभी तो अच्छा-ख़ासा चलते चलते
यूँ लगता है आगे रस्ता कोई नहीं है
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आज सोचा है कि ख़ुद रस्ते बनाना सीख लूँ
इस तरह तो उम्र सारी सोचती रह जाऊँगी
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जाने फिर मुँह में ज़बाँ रखने का मसरफ़ क्या है
जो कहा चाहते हैं वो तो नहीं कह सकते
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मयस्सर ख़ुद निगह-दारी की आसाइश नहीं रहती
मोहब्बत में तो पेश-ओ-पस की गुंजाइश नहीं रहती
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