सरदार अंजुम के शेर
चलो बाँट लेते हैं अपनी सज़ाएँ
न तुम याद आओ न हम याद आएँ
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ग़म-ए-हयात का झगड़ा मिटा रहा है कोई
चले भी आओ कि दुनिया से जा रहा है कोई
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ज़िंदगी इक इम्तिहाँ है इम्तिहाँ का डर नहीं
हम अँधेरों से गुज़र कर रौशनी कहलाएँगे
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कभी कभी तू मुझे याद कर तो लेती है
सुकून इतना सा काफ़ी है ज़िंदगी के लिए
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सभी ने लगाया है चेहरे पे चेहरा
किसे याद रक्खें किसे भूल जाएँ
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वो मोड़ जिस ने हमें अजनबी बना डाला
उस एक मोड़ पे दिल अब भी गुनगुनाता है
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ग़मों ने घेर लिया है मुझे तो क्या ग़म है
मैं मुस्कुरा के जियूँगा तिरी ख़ुशी के लिए
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