सरफ़राज़ दानिश के शेर
ग़म का सूरज तो डूबता ही नहीं
धूप ही धूप है किधर जाएँ
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शहर भर के आईनों पर ख़ाक डाली जाएगी
आज फिर सच्चाई की सूरत छुपा ली जाएगी
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तिलिस्म तोड़ दिया इक शरीर बच्चे ने
मिरा वजूद उदासी का इस्तिआरा था
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रात की सरहद यक़ीनन आ गई
जिस्म से साया जुदा होने लगा
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हमारा शेर भी लौह-ए-तिलिस्म है शायद
हर एक रुख़ से हमें बे-नक़ाब करता है
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चंद लम्हे को तू ख़्वाबों में भी आ कर झाँक ले
ज़िंदगी तुझ से मिले कितने ज़माने हो गए
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हम अपने जलते हुए घर को कैसे रो लेते
हमारे चारों तरफ़ एक ही नज़ारा था
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