सरवत ज़ेहरा के शेर
बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है
और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है
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जाने वाले को चले जाना है
फिर भी रस्मन ही पुकारा जाए
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ख़्वाब और तमन्ना का क्या हिसाब रखना है
ख़्वाहिशें हैं सदियों की उम्र तो ज़रा सी है
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वक़्त भी अब मिरा मरहम नहीं होने पाता
दर्द कैसा है जो मद्धम नहीं होने पाता
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जो सारा दिन मिरे ख़्वाबों को रेज़ा रेज़ा करते हैं
मैं उन लम्हों को सी कर रात का बिस्तर बनाती हूँ
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कहाँ पे खोलोगे दर्द अपना किसे कहोगे
कहीं छुपाओ, ये हाल ले कर कहाँ चले हो
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दिल के दरिया ने किनारों से मोहब्बत कर ली
तेज़ बहता है मगर कम नहीं होने पाता
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अब तो सँवारने के लिए हिज्र भी नहीं
सारा वबाल ले के ग़ज़ल कर दिया गया
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कोई जवाज़ ढूँडते ख़याल ही नहीं रहा
तमाम उम्र यूँही बे-ख़याल जागते रहे
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कैसे बुझाएँ कौन बुझाए बुझे भी क्यूँ
इस आग को तो ख़ून में हल कर दिया गया
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बस एक बार याद ने तुम्हारा साथ छू लिया
फिर इस के बाद तो कई जमाल जागते रहे
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तुम्हारी आस की चादर से मुँह छुपाए हुए
पुकारती हुई रुस्वाइयों में बैठी हूँ
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मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है
किसी से क्या कहूँ क्या ज़ात के अंदर बनाती हूँ
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