सत्तार सय्यद
ग़ज़ल 12
अशआर 6
कब बन-बास कटे इस शहर के लोगों का
क़ुफ़्ल खुलें कब जाने बंद मकानों के
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यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया
हर रौशनी को शहर-बदर कर दिया गया
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लहू में फूल खिलाने कहाँ से आते हैं
नए ख़याल न जाने कहाँ से आते हैं
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शायद अब ख़त्म हुआ चाहता है अहद-ए-सुकूत
हर्फ़-ए-एजाज़ की तासीर से लब जागते हैं
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सहर को साथ उड़ा ले गई सबा जैसे
ये किस ने कर दिए रस्ते धुआँ धुआँ मेरे
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चित्र शायरी 1
वो चराग़ सा कफ़-ए-रहगुज़ार में कौन था मैं कहाँ था और मिरे इंतिज़ार में कौन था कोई धूल उड़ती थी रास्तों पे न खुल सका वो ग़नीम था कि कुमक ग़ुबार में कौन था कोई शाम हल्क़ा-ए-दोस्ताँ में गुज़ारता जिसे जा के मिलता मैं उस दयार में कौन था मिरे ख़्वाब किस ने चुरा लिए सर-ए-शाम-ए-ग़म मिरी उम्र जिस के थी इख़्तियार में कौन था