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सय्यदा अरशिया हक़

1990 | सिडनी, ऑस्ट्रेलिया

नई नस्ल की शाइरात में शामिल

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सय्यदा अरशिया हक़ के शेर

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तुम भी आख़िर हो मर्द क्या जानो

एक औरत का दर्द क्या जानो

औरत हो तुम तो तुम पे मुनासिब है चुप रहो

ये बोल ख़ानदान की इज़्ज़त पे हर्फ़ है

ख़बर कर दे कोई उस बे-ख़बर को

मिरी हालत बिगड़ती जा रही है

सब यहाँ 'जौन' के दिवाने हैं

'हक़' कहो कौन तुम को चाहेगा

यही दुआ है वो मेरी दुआ नहीं सुनता

ख़ुदा जो होता अगर क्या ख़ुदा नहीं सुनता

हिजाब करने की बंदिश मुझे गवारा नहीं

कि मेरा जिस्म कोई माल-ए-ज़र तुम्हारा नहीं

जिस्म को पढ़ते रहे वो रूह तक आए नहीं

'जौन' को पढ़ते रहे 'मजरूह' तक आए नहीं

तुम्हें लगता है जो वैसी नहीं हूँ

मैं अच्छी हूँ मगर इतनी नहीं हूँ

तुम्हारे ख़त जला कर के तुम्हें यकसर भुला दूँगी

तुम्हारे जुर्म की तुम को मैं इस दर्जा सज़ा दूँगी

चमन में बुलबुल का गूँजे तराना

यही बाग़बान-ए-चमन चाहता है

बला की हुस्न-वर है 'अर्शिया-हक़'

हसद रखती हैं सब जन्नत की हूरें

तो क्या हुआ जो जन्मी थी परदेस में कभी

बेटी है 'अर्शिया' भी तो हिन्दोस्तान की

तुम्हारा रोज़ जो मैं सर्फ़ करती रहती हूँ

तुम्हें गुमान हो तुम मिरी मोहब्बत हो

'अर्शिया-हक़' के परस्तारों में हो

तुम भी काफ़िर हो गुनहगारों में हो

अपनी सूरत-ए-ज़र्द छुपाती फिरती हूँ

सब से अपना दर्द छुपाती फिरती हूँ

मैं ख़ुद पे ज़ब्त खोती जा रही हूँ

जुदाई क्या सितम-आलूद शय है

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