शाद लखनवी के शेर
इश्क़-ए-मिज़्गाँ में हज़ारों ने गले कटवाए
ईद-ए-क़ुर्बां में जो वो ले के छुरी बैठ गया
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वो नहा कर ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ को जो बिखराने लगे
हुस्न के दरिया में पिन्हाँ साँप लहराने लगे
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ख़ुदा का डर न होता गर बशर को
ख़ुदा जाने ये बंदा क्या न करता
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न तड़पने की इजाज़त है न फ़रियाद की है
घुट के मर जाऊँ ये मर्ज़ी मिरे सय्याद की है
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चश्म-पोशों से रहूँ 'शाद' मैं क्या आईना-दार
मुँह पे काना नहीं कहता है कोई काने को
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वस्ल में बेकार है मुँह पर नक़ाब
शरम का आँखों पे पर्दा चाहिए
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जवानी से ज़ियादा वक़्त-ए-पीरी जोश होता है
भड़कता है चराग़-ए-सुब्ह जब ख़ामोश होता है
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मुश्किल में कब किसी का कोई आश्ना हुआ
तलवार जब गले से मिली सर जुदा हुआ
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सोहबत-ए-वस्ल है मसदूद हैं दर हाए हिजाब
नहीं मालूम ये किस आह से शरम आती है
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हम न बिगड़ेंगे अगर चश्म-नुमाई होगी
फिर कहीं आँख लड़ाई तो लड़ाई होगी
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जब जीते-जी न पूछा पूछेंगे क्या मरे पर
मुर्दे की रूह को भी घर से निकालते हैं
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पानी पानी हो ख़जालत से हर इक चश्म-ए-हबाब
जो मुक़ाबिल हो मिरी अश्क भरी आँखों से
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रोने से एक पल नहीं मोहलत फ़िराक़ में
ये आँख क्या लगी मिरे पीछे बला लगी
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इस से बेहतर और कह लेंगे अगर ज़िंदा हैं 'शाद'
खो गया पहला जो वो दीवान क्या था कुछ न था
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लगा के ठट है हर सूना मुरादी
तमन्ना-ए-दिली निकले किधर से
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निशान-ए-'मीर' है हम से जो हम मिटे ऐ 'शाद'
ये जान रेख़्ता-गोई गई ज़माने से
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हर एक जवाहर बेश-बहा चमका तो ये पत्थर कहने लगा
जो संग तिरा वो संग मिरा तू और नहीं मैं और नहीं
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मिरी बे-रिश्ता-दिली से उसे मज़ा मिल जाए
जिगर कबाब जो कोई जला-भुना मिल जाए
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चश्म-ए-तर ने बहा के जू-ए-सरिश्क
मौज-ए-दरिया को धार पर मारा
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पूछा जो शबाब-ए-बशरी चश्म-ए-फ़ना से
पलकों ने सदा दी कि भरोसा नहीं पल का
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