शहाब सर्मदी के शेर
चाँद है तेरा हम-सफ़र कोई नहीं है राहबर
आगे क़दम बढ़ा के रख दूर की रौशनी न देख
नहीं कि ज़िंदगी हमें कहाँ कहाँ लिए फिरी
है यूँ कि हम गए उसे कहाँ कहाँ लिए हुए
इस एहतिमाम से अक्सर उठे हैं पैमाने
कि बूँद बूँद को मैं जानों या ख़ुदा जाने
तुम ख़ुद ही चले आओगे शायद सर-ए-मंज़िल
इक राह निकाली है मिरी दर-बदरी ने
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टैग : मंज़िल
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बाग़ का दर्द उसी फूल के दिल से पूछो
मुस्कुराता हुआ जो दौर-ए-ख़िज़ाँ से गुज़रे
तिरा ख़याल दे गया है आसरा कहीं कहीं
तिरा फ़िराक़ हौसले बढ़ा गया कभी कभी