शारिब मौरान्वी के शेर
पेड़ के नीचे ज़रा सी छाँव जो उस को मिली
सो गया मज़दूर तन पर बोरिया ओढ़े हुए
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सरों पे ओढ़ के मज़दूर धूप की चादर
ख़ुद अपने सर पे उसे साएबाँ समझने लगे
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किसी को मार के ख़ुश हो रहे हैं दहशत-गर्द
कहीं पे शाम-ए-ग़रीबाँ कहीं दिवाली है
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हम ऐसे दश्त का तालाब हैं जहाँ पानी
कोई भी शेर हो गर्दन झुका के पीता है
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सब एक जैसी हैं दुनिया की ‘औरतें लेकिन
तुम्हारे डसने का अंदाज़ मुख़्तलिफ़ ठहरा
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उस ने होंटों पे लब रखे भी न थे
मुझ में सूरज तुलूअ' होने लगा
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कभी मिलो तो दिखाऊँ उदासियों का सफ़र
जिन्हें मैं रूह की गहराइयों में रखता हूँ
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क़फ़स के बंद परिंदे हैं जिन की आँखों में
असीरी घूमती रहती है क़ैद-ख़ानों की
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रुख़ पे आ जाता है जिस रोज़ तमन्ना का बुख़ार
रात हो जाती है चेहरा मुझे धोते धोते
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पूरी दुनिया मुझे फ़नकार समझती है तो क्या
मेरे घर वाले तो नाकारा समझते हैं मुझे
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तुम्हें भी एक दिन मैं ढूँढता हुआ आता
मगर ये रूह किसी और के हिसार में है
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शजर पे बैठे परिंदों का शोर काटता है
दरख़्त को मिरे घर से उखाड़ दे कोई
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सियाह शब में चराग़ों से दोस्ती करना
हमें पसंद नहीं घर में दुश्मनी करना
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मिरी आँखें यहाँ तन्हा पड़ी हैं
तो उस का कौन पीछा कर रहा है
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