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शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी

शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी के शेर

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मोहब्बत को बहुत होती है ग़ैरत

ख़ता उन की है मैं शर्मा रहा हूँ

कोई हम से ख़फ़ा सा लगता है

वर्ना दिल क्यूँ बुझा सा लगता है

साथ तेरा रहा नहीं बाक़ी

वर्ना दुनिया में क्या नहीं बाक़ी

इक दाइमी सुकूँ की तमन्ना है रात दिन

तंग गए हैं गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से हम

वो निकले हैं सरापा बन-सँवर कर

क़यामत आएगी ये आज तय है

चाहे दीवाना कहें या लोग सौदाई कहें

गए हम सर को ले कर पत्थरों के शहर में

हिज्र में यूँ बहते हैं आँसू

जैसे रिम-झिम बरसे सावन

पथराई आँखों में देखो क्या क्या रंग दिखाता आँसू

ठहर गया तो इक क़तरा सा बह निकला तो दरिया आँसू

कहीं आँसुओं से लिखा हुआ कहीं आँसुओं से मिटा हुआ

लौह-ए-दिल पे जिस के निशान हैं वही एक नाम क़ुबूल है

सुकूँ-अफ़ज़ा बहुत है दर्द-ए-उल्फ़त

क़रार अब उम्र भर आए आए

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