सिफ़र शर्मा के शेर
अब कहाँ जाएँगे ऐ दिल्ली तुझे हम छोड़ कर
तेरी ख़ातिर सब गली कूचों का दिल तोड़ आए हैं
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कानों में गूँजती है वो आवाज़ दम-ब-दम
इक हाथ रह गया है कहीं हाथ छोड़ कर
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कहते हैं ऐसे वक़्त में वाजिब है झूट भी
तू झूट कोई बोल कि दिल फिर से जी उठे
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शमशीर ब-कफ़ हूँ न कोई जिस्म में जुंबिश
मैं किस के मुक़ाबिल हूँ कि मारा नहीं जाता
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नश्शा-ए-होश चढ़ा जाता है रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी फिर से हुई जाती है मुबहम मुबहम
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दिल-ज़मीनें 'इश्क़ के मौसम में ख़ाली हो गईं
उग रही हैं उन पे अब बे-मौसमी तन्हाइयाँ
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कोई नहीं जो उँगलियों से दर्द खींचता
अपना ही हाथ फेर लिया सर पे बारहा
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हम राही इकलौते थे और वक़्त की पीठ पे बैठे थे
दिन निकले तक मंज़िल पा ली शाम तलक रुख़ मोड़ लिया
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अब तो वहाँ हैं जिस का बयाँ भी है ला-वजूद
सदमों पे हाए हाए करे अब वो दिल कहाँ
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शौक़ में पहनी थी बस ज़ंजीर क्या मा'लूम था
बेड़ियों की शक्ल ले लेगी ये नागिन एक दिन
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हवा है आसमाँ है आग है पानी है मिट्टी है
नुक़ूश-ए-यार गर होते तो मैं दुनिया बना लेता
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