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सय्यद अनवार अहमद

सय्यद अनवार अहमद के शेर

इस पल दो पल की हस्ती में

क्या तेरा है क्या मेरा है

इन से आवाज़-ए-कर्ब आती है

ज़र्द पत्तों पे मत चले कोई

वो मुझ से पूछने लगा मेरे सवाल अब

और मैं भी दे रहा हूँ जो इस के जवाब थे

कुछ मारके हमारे भी हम तक ही रह गए

गुमनाम इक सिपाही की ख़िदमात की तरह

अपने लिए भी कोई रिआयत रवा नहीं

इस मुंसिफ़ी की ख़ू ने तो सफ़्फ़ाक कर दिया

फ़क़ीह-ए-शहर से कुछ ख़ास दुश्मनी तो नहीं

फ़क़ीह-ए-शहर से लेकिन ठनी सी रहती है

बोली लगी मता-ए-हुनर की तो अहल-ए-फ़न

जल्दी में अपने ख़्वाब भी नीलाम कर गए

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