सय्यद हुज़ैफ़ा कैफ़ के शेर
नासेहा पूछते फिरते हैं सबब उलझन का
'इश्क़ गर ख़ुद ये करें होश ठिकाने लग जाएँ
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मैं तहय्या कर के बैठा था कि दुनिया छोड़ दूँ
कोई कोयल 'ऐन उस मौक़ा' पे गाने आ गई
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मैं तुम्हें पा न सकूँ तुम मुझे अपना न सको
फिर यही खेल मिरी जान दुबारा हो जाए
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उस की ही मोहब्बत में गिरे दोस्त कि जिस से
हम बात तलक करने को तय्यार नहीं थे
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जिन से ख़ुद आप सँभाला नहीं जाता ख़ुद को
उन का दा'वा है कि वो आ के सँभालेंगे मुझे
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टैग : मायूसी
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गर नहीं ये 'इश्क़ तो फिर और क्या शय है भला
जो पस-ए-पर्दा रहे और क़ल्ब मेरा खाए है
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टैग : इश्क़
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'कैफ़' कहते हैं नासेह कि तन्हा रहो
मैं ख़ुदा तो नहीं हूँ जो यकता रहूँ
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