सय्यद ज़ामिन अब्बास काज़मी के शेर
जैसे मैं दोस्तों से हँस के गले मिलता हूँ
कोई मामूली अदाकार नहीं कर सकता
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पहले भी जिस पे मिरे सब्र की हद ख़त्म हुई
तू ने कर दी ना वही बात दोबारा मिरे दोस्त
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तुम्हारी बात से इतना भी दुख नहीं पहुँचा
मगर जो पहुँचा तुम्हारी वज़ाहतों से मुझे
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हिज्र होगा न कोई हिज्र का नौहा होगा
बाज़ आते हैं मोहब्बत से जो होगा होगा
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एक दो बार तो रोकूँगा मुरव्वत में तुझे
सैकड़ों बार तो इसरार नहीं कर सकता
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मैं जो कहता हूँ मुझ से दूर रहो
ये नसीहत है इल्तिमास नहीं
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हमारी बात काटी जा रही है
किसी का हौसला बढ़ता रहा है
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क़ुव्वत-ए-फ़िक्र भी दी ऐसे कि इक हद में रहो
यानी बे-कार समझदार बनाए गए हम
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बाग़ में एक भी फूल एक भी फल के होते
तू मुझे ज़ीस्त से बेज़ार नहीं कर सकता
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सवाल-ए-वस्ल पे इक बार और ग़ौर करें
बजा कि सोच लिया है दुरुस्त है फिर भी
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वो कह रहा था बुराई बुराई जन्ती है
सो उस के वास्ते ले कर कँवल गया हूँ मैं
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