ताबिश कमाल
ग़ज़ल 8
नज़्म 11
अशआर 10
ज़माने से अलग थी मेरी दुनिया
मैं उस की दौड़ में शामिल नहीं था
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अजब यक़ीन सा उस शख़्स के गुमान में था
वो बात करते हुए भी नई उड़ान में था
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कई पड़ाव थे मंज़िल की राह में 'ताबिश'
मिरे नसीब में लेकिन सफ़र कुछ और से थे
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कोई इज़हार कर सकता है कैसे
ये लफ़्ज़ों से ज़बाँ का फ़ासला है
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न देखें तो सुकूँ मिलता नहीं है
हमें आख़िर वो क्यूँ मिलता नहीं है
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