ताहिर अज़ीम के शेर
जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे
बस वही इंतिज़ार के दिन थे
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शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ
ज़ेहन में पर गाँव का नक़्शा रखा है
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मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का
मैं भी किरदार हूँ कहानी का
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ये जो माज़ी की बात करते हैं
सोचते होंगे हाल से आगे
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टैग : माज़ी
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मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ
सोचता हूँ विसाल से आगे
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सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
ज़ेहन की क्या ये तबाही कुछ नहीं
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बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था
अब तक उस की गहराई है आँखों में
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मैं तिरे हिज्र की गिरफ़्त में हूँ
एक सहरा है मुब्तला मुझ में
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तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
मैं सच जो नहीं कहता लहजे का असर जाता
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जो बहुत बे-क़रार रखते थे
हाँ वही तो क़रार के दिन थे
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रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
उस का कोई पता भी ज़रूरी नहीं कि हो
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इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं
देखो कितनी सच्चाई है आँखों में
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तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
इस में अपने ज़र्फ़ का अर्सा रखा है
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तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
अब हवा के दोश पर दीवा रखा है
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