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ताहिर अज़ीम

1978 | बहरैन

ताहिर अज़ीम के शेर

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जो तिरे इंतिज़ार में गुज़रे

बस वही इंतिज़ार के दिन थे

शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूँ

ज़ेहन में पर गाँव का नक़्शा रखा है

मुझ को भी हक़ है ज़िंदगानी का

मैं भी किरदार हूँ कहानी का

ये जो माज़ी की बात करते हैं

सोचते होंगे हाल से आगे

मैं तिरे हिज्र में जो ज़िंदा हूँ

सोचता हूँ विसाल से आगे

सोच अपनी ज़ात तक महदूद है

ज़ेहन की क्या ये तबाही कुछ नहीं

बरसों पहले जिस दरिया में उतरा था

अब तक उस की गहराई है आँखों में

मैं तिरे हिज्र की गिरफ़्त में हूँ

एक सहरा है मुब्तला मुझ में

तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में

मैं सच जो नहीं कहता लहजे का असर जाता

जो बहुत बे-क़रार रखते थे

हाँ वही तो क़रार के दिन थे

रहता है ज़ेहन दिल में जो एहसास की तरह

उस का कोई पता भी ज़रूरी नहीं कि हो

इन बातों पर मत जाना जो आम हुईं

देखो कितनी सच्चाई है आँखों में

तुम हमारे ख़ून की क़ीमत पूछो

इस में अपने ज़र्फ़ का अर्सा रखा है

तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये

अब हवा के दोश पर दीवा रखा है

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