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Tariq Qamar's Photo'

तारिक़ क़मर

1975 | लखनऊ, भारत

मक़बूल शाइरों में शुमार

मक़बूल शाइरों में शुमार

तारिक़ क़मर के शेर

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मिज़ाज अपना मिला ही नहीं ज़माने से

मैं हुआ कभी इस का ये ज़माना मिरा

कोई शिकवा शिकायत वज़ाहत कोई

मेज़ से बस मिरी तस्वीर हटा दी उस ने

अभी बाक़ी है बिछड़ना उस से

ना-मुकम्मल ये कहानी है अभी

वो भी रस्मन यही पूछेगा कि कैसे हो तुम

मैं भी हँसते हुए कह दूँगा कि अच्छा हूँ मैं

ज़ेहन पर बोझ रहा, दिल भी परेशान हुआ

इन बड़े लोगों से मिल कर बड़ा नुक़सान हुआ

इस सलीक़े से मुझे क़त्ल किया है उस ने

अब भी दुनिया ये समझती है कि ज़िंदा हूँ मैं

साथ होने के यक़ीं में भी मिरे साथ हो तुम

और होने के भी इम्कान में रक्खा है तुम्हें

मैं चाहता हूँ कभी यूँ भी हो कि मेरी तरह

वो मुझ को ढूँडने निकले मगर पाए मुझे

क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ

रास्ते चुप हैं मगर नक़्श-ए-क़दम बोलते हैं

अजब ग़रीबी के आलम में मर गया इक शख़्स

कि सर पे ताज था दामन में इक दुआ भी थी

हर आदमी वहाँ मसरूफ़ क़हक़हों में था

ये आँसुओं की कहानी किसे सुनाते हम

वो लोग भी तो किनारों पे के डूब गए

जो कह रहे थे समुंदर हैं सब खंगाले हुए

कैसे रिश्तों को समेटें ये बिखरते हुए लोग

टूट जाते हैं यही फ़ैसला करते हुए लोग

किसी जवाज़ का होना ही क्या ज़रूरी है

अगर वो छोड़ना चाहे तो छोड़ जाए मुझे

मेरे ज़ख़्मों का सबब पूछेगी दुनिया तुम से

मैं ने हर ज़ख़्म की पहचान में रक्खा है तुम्हें

एक मुद्दत से ये मंज़र नहीं बदला 'तारिक़'

वक़्त उस पार है ठहरा हुआ इस पार हैं हम

इस लहजे से बात नहीं बन पाएगी

तलवारों से कैसे काँटे निकलेंगे

फिर आज भूक हमारा शिकार कर लेगी

कि रात हो गई दरिया में जाल डाले हुए

जैसे मुमकिन हो इन अश्कों को बचाओ 'तारिक़'

शाम आई तो चराग़ों की ज़रूरत होगी

ये किस की प्यास के छींटे पड़े हैं पानी पर

ये कौन जब्र का क़िस्सा तमाम कर आया

हम उस को सारी उम्र उठाए फिरा किए

जो बार 'मीर' से भी उठाया जा सका

अपनी पलकों के शबिस्तान में रक्खा है तुम्हें

तुम सहीफ़ा हो सो जुज़दान में रक्खा है तुम्हें

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