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तौक़ीर तक़ी के शेर

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फेंक दे ख़ुश्क फूल यादों के

ज़िद कर तू भी बे-वफ़ा हो जा

जैसे वीरान हवेली में हों ख़ामोश चराग़

अब गुज़रती हैं तिरे शहर में शामें ऐसी

अब ज़माने में मोहब्बत है तमाशे की तरह

इस तमाशे से बहलता नहीं तू भी मैं भी

सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद

ज़र्द पत्ते भरे मंज़र से निकल जाते हैं

कल जहाँ दीवार ही दीवार थी

अब वहाँ दर है जबीं है इश्क़ है

लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा

मिरी आँख से अदा हो जा

बदन में रूह की तर्सील करने वाले लोग

बदल गए मुझे तब्दील करने वाले लोग

रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं

अश्क बच्चों की तरह घर से निकल जाते हैं

मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा

हाए वो लोग जो मेहवर से निकल जाते हैं

ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स

जिस को देखो वही औक़ात से निकला हुआ है

हमारी राह में बैठेगी कब तक तेरी दुनिया

कभी तो इस ज़ुलेख़ा की जवानी ख़त्म होगी

हिज्र था बार-ए-अमानत की तरह

सो ये ग़म आख़िरी हिचकी से उठा

दामन बचा रहे थे कि चेहरा भी जल गया

किस आग से गुज़र के तिरी रौशनी में आए

इन सुलगती हुई साँसों को नहीं देखते लोग

और समझते हैं कि जलता नहीं तू भी मैं भी

यहीं आना है भटकती हुई आवाज़ों को

यानी कुछ बात तो है कोह-ए-निदा में ऐसी

बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं

मगर कहीं कहीं सीने में दर्द ज़िंदा था

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