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वाहिद प्रेमी

1938 - 1993 | मध्य प्रदेश, भारत

वाहिद प्रेमी के शेर

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गुल ग़ुंचे आफ़्ताब शफ़क़ चाँद कहकशाँ

ऐसी कोई भी चीज़ नहीं जिस में तू हो

किसी को बे-सबब शोहरत नहीं मिलती है 'वाहिद'

उन्हीं के नाम हैं दुनिया में जिन के काम अच्छे हैं

आज़ाद तो बरसों से हैं अरबाब-ए-गुलिस्ताँ

आई मगर ताक़त-ए-परवाज़ अभी तक

है शाम-ए-अवध गेसू-ए-दिलदार का परतव

और सुब्ह-ए-बनारस है रुख़-ए-यार का परतव

हुजूम-ए-ग़म से मिली है हयात-ए-नौ मुझ को

हुजूम-ए-दर्द से पाया है हौसला मैं ने

दिलों में ज़ख़्म होंटों पर तबस्सुम

उसी का नाम तो ज़िंदा-दिली है

बा'द तकलीफ़ के राहत है यक़ीनी 'वाहिद'

रात का आना ही पैग़ाम-ए-सहर होता है

कभी हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'

वो अपने नाज़ में हम अपने बाँकपन में रहे

हक़ बात सर-ए-बज़्म भी कहने में तअम्मुल

हक़ बात सर-ए-दार कहो सोचते क्या हो

वो और हैं किनारों पे पाते हैं जो सुकूँ

हम को क़रार मिलता है तूफ़ाँ की गोद में

किस शान किस वक़ार से किस बाँकपन से हम

गुज़रे हैं आज़माइश-ए-दार-ओ-रसन से हम

अँधेरों में उजाले ढूँढता हूँ

ये हुस्न-ए-ज़न है या दीवाना-पन है

राह-ए-तलब की लाख मसाफ़त गिराँ सही

दुनिया को मैं जहाँ भी मिला ताज़ा-दम मिला

पूछिए कि शब-ए-हिज्र हम पे क्या गुज़री

तमाम रात जले शम-ए-अंजुमन की तरह

मेरी दीवानगी-ए-इश्क़ है इक दर्स-ए-जहाँ

मेरे गिरने से बहुत लोग सँभल जाते हैं

एक मुद्दत से इसी उलझन में हूँ

उन को या ख़ुद को किसे सज्दा करूँ

कोई हंगामा-ए-हयात नहीं

रात ख़ामोश है सहर ख़ामोश

इस तरह हुस्न-ओ-मोहब्बत की करो तुम तफ़्सीर

मुझ को आईना कहो और उन्हें तस्वीर कहो

उफ़ गर्दिश-ए-हयात तिरी फ़ित्ना-साज़ियाँ

अपने वतन में दूर हैं अहल-ए-वतन से हम

हम वो रह-रव हैं कि चलना ही है मस्लक जिन का

हम तो ठुकरा दें अगर राह में मंज़िल आए

कोई गर्दिश हो कोई ग़म हो कोई मुश्किल हो

जिस को आना हो हमारे वो मुक़ाबिल आए

का'बा-ओ-दैर-ओ-कलीसा का तजस्सुस क्यूँ हो

जब मिरे क़ल्ब ही में मेरा ख़ुदा है यारो

शख़्सिय्यत-ए-फ़नकार मुअ'म्मा नहीं 'वाहिद'

फ़न ही में हुआ करता है फ़नकार का परतव

मैं औरों को क्या परखूँ आइना-ए-आलम में

मुहताज-ए-शनासाई जब अपना ही चेहरा है

शब-ए-फ़िराक़ कई बार गोशा-ए-दिल से

उठी तो आह मगर आह बे-असर उट्ठी

अपना नफ़स नफ़स है कि शो'ला कहें जिसे

वो ज़िंदगी है आग का दरिया कहें जिसे

आशियाँ जलने पे बुनियाद नई पड़ती है

अक्स-ए-तख़रीब को आईना-ए-तामीर कहो

क्यूँ शिकवा-ए-बे-मेहरी-ए-साक़ी है लबों पर

पीना है तो ख़ुद बढ़ के पियो बादा-गुसारो

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