वली उज़लत के शेर
हम उस की ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर में हुए हैं असीर
सजन के सर की बला आ पड़ी हमारे गले
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सख़्त पिस्ताँ तिरे चुभे दिल में
अपने हाथों से मैं ख़राब हुआ
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सिया है ज़ख़्म-ए-बुलबुल गुल ने ख़ार और बू-ए-गुलशन से
सूई तागा हमारे चाक-ए-दिल का है कहाँ देखें
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ऐ सालिक इंतिज़ार-ए-हज में क्या तू हक्का-बक्का है
बगूले सा तो कर ले तौफ़ दिल पहलू में मक्का है
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तिरी वहशत की सरसर से उड़ा जूँ पात आँधी का
मिरा दिल हाथ से खोया तो तेरे हाथ क्या आया
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तिरी ज़ुल्फ़ की शब का बेदार मैं हूँ
तुझ आँखों के साग़र का मय-ख़्वार मैं हूँ
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टैग : बेदार
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वो पल में जल-बुझा और ये तमाम रात जला
हज़ार बार पतिंगे से है चराग़ भला
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सहज याद आ गया वो लाल होली-बाज़ जूँ दिल में
गुलाली हो गया तन पर मिरे ख़िर्क़ा जो उजला था
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टैग : होली
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हिन्दू ओ मुस्लिमीन हैं हिर्स-ओ-हवा-परसत
हो आश्ना-परस्त वही है ख़ुदा-परस्त
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बाद-ए-बहार में सब आतिश जुनून की है
हर साल आवती है गर्मी में फ़स्ल-ए-होली
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टैग : होली
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इश्क़ गोरे हुस्न का आशिक़ के दिल को दे जला
साँवलों के आशिक़ों का दिल है काला कोएला
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मोहकमे में इश्क़ के है यारो दीवाने का शोर
मेरे दिल देने का ग़ुल उस के मुकर जाने का शोर
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तल्ख़ लगता है उसे शहर की बस्ती का स्वाद
ज़ौक़ है जिस को बयाबाँ के निकल जाने का
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जिस पर नज़र पड़े उसे ख़ुद से निकालना
रौशन-दिलों का काम है मानिंद-ए-आईना
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जल्द मर गए तिरी हसरत सेती हम
कि तिरा देर का आना न गया
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गए सब मर्द रह गए रहज़न अब उल्फ़त से कामिल हूँ
ऐ दिल वालो मैं इन दिल वालियों से सख़्त बे-दिल हूँ
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जपे है विर्द सा तुझ से सनम के नाम को शैख़
नमाज़ तोड़ उठे तेरे राम राम को शैख़
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कहा जो मैं ने गया ख़त से हाए तेरा हुस्न
तो हँस के मुझ को कहा पश्म से गया तो गया
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ग़नीमत बूझ लेवें मेरे दर्द-आलूद नालों को
ये दीवाना बहुत याद आएगा शहरी ग़ज़ालों को
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जो हम ये तिफ़लों के संग-ए-जफ़ा के मारे हैं
बुतों का शिकवा नहीं हम ख़ुदा के मारे हैं
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कुछ ग़ौर का जौहर नहीं ख़ुद-फ़हमी में हैराँ हैं
इस अस्र के फ़ाज़िल सब सतही हैं जूँ आईना
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उस को पहुँची ख़बर कि जीता हूँ
किसी दुश्मन सेती सुना होगा
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मैं सहरा जा के क़ब्र-ए-हज़रत-ए-मजनूँ को देखा था
ज़ियारत करते थे आहू बगूला तौफ़ करता था
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जो आशिक़ हो उसे सहरा में चल जाने से क्या निस्बत
जुज़ अपनी धूल उड़ाना और वीराने से क्या निस्बत
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पीर हो शैख़ हुआ है देखो तिफ़्लों का मुरीद
मुर्दा बोला है कफ़न फाड़ क़यामत आई
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जा कर फ़ना के उस तरफ़ आसूदा मैं हुआ
मैं आलम-ए-अदम में भी देखा मज़ा न था
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जावे थी जासूसी-ए-मजनूँ को ता राहत न ले
वर्ना कब लैला को था सहरा में जाने का दिमाग़
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इस ज़माने में बुज़ुर्गी सिफ़्लगी का नाम है
जिस की टिकिया में फिरे उँगली सो हो जावे तिरा
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