वामिक़ जौनपुरी के शेर
मोहब्बत की सज़ा तर्क-ए-मोहब्बत
मोहब्बत का यही इनआम भी है
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इक हल्क़ा-ए-अहबाब है तन्हाई भी उस की
इक हम हैं कि हर बज़्म में तन्हा नज़र आए
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तेरी क़िस्मत ही में ज़ाहिद मय नहीं
शुक्र तो मजबूरियों का नाम है
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सरकशी ख़ुद-कशी पे ख़त्म हुई
एक रस्सी थी जल गई शायद
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इस दौर की तख़्लीक़ भी क्या शीशागरी है
हर आईने में आदमी उल्टा नज़र आए
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पी लिया करते हैं जीने की तमन्ना में कभी
लड़खड़ाना भी ज़रूरी है सँभलने के लिए
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ज़बाँ तक जो न आए वो मोहब्बत और होती है
फ़साना और होता है हक़ीक़त और होती है
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मैं तंग हूँ सुकून से अब इज़्तिराब दे
बे-इंतिहा सुकून भी आज़ार ही तो है
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रात भी मुरझा चली चाँद भी कुम्हला गया
फिर भी तिरा इंतिज़ार देखिए कब तक रहे
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टैग : इंतिज़ार
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हारने जीतने से कुछ नहीं होता 'वामिक़'
खेल हर साँस पे है दाँव लगाते रहना
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हम न कहते थे शाइरी है वबाल
आज लो घिर गए हसीनों में
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नहीं मिलते तो इक अदना शिकायत है न मिलने की
मगर मिल कर न मिलने की शिकायत और होती है
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तुम होश में जब आए तो आफ़त ही बन के आए
अब मेरे पास जब भी तुम आओ नशे में आओ
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रहना तुम चाहे जहाँ ख़बरों में आते रहना
हम को अहसास-ए-जुदाई से बचाते रहना
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न पूछो बेबसी उस तिश्ना-लब की
कि जिस की दस्तरस में जाम भी है
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जब पुराना लहजा खो देता है अपनी ताज़गी
इक नई तर्ज़-ए-नवा ईजाद कर लेते हैं हम
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वो लम्हा भर की मिली ख़ुल्द में जो आज़ादी
तो क़ैद हो गए मिट्टी में हम सदा के लिए
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ले के तेशा उठा है फिर मज़दूर
ढल रहे हैं जबल मशीनों में
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टैग : मज़दूर
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यक़ीनन आ गया है मय-कदे में तिश्ना-लब कोई
कि पीता जा रहा हूँ कैफ़ियत कम होती जाती है
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अगर ग़ुबार हो दिल में अगर हो तंग-नज़र
तो मेहर ओ माह से भी तीरगी नहीं जाती
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वो तो कहिए आज भी ज़ंजीर में झंकार है
वर्ना किस को याद रह जाती है दीवानों की बात
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पहचान लो उस को वही क़ातिल है हमारा
जिस हाथ में टूटी हुई तलवार लगे है
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बदलती रहती हैं क़द्रें रहील-ए-वक़्त के साथ
ज़माना बदलेगा हर शय का नाम बदलेगा
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मुझे उस जुनूँ की है जुस्तुजू जो चमन को बख़्श दे रंग ओ बू
जो नवेद-ए-फ़स्ल-ए-बहार हो मुझे उस नज़र की तलाश है
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ये माना शीशा-ए-दिल रौनक़-ए-बाज़ार-ए-उल्फ़त है
मगर जब टूट जाता है तो क़ीमत और होती है
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वो वादे याद नहीं तिश्ना है मगर अब तक
वो वादे भी कोई वादे जो मय पिला के लिए
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वो जो तस्बीह लिए है उस को
मेरे आगे से उठा दे साक़ी
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किस ने बसाया था और उन को किस ने यूँ बर्बाद किया
अपने लहू की बू आती है इन उजड़े बाज़ारों से
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कौन सुनता है भिकारी की सदाएँ इस लिए
कुछ ज़रीफ़ाना लतीफ़े याद कर लेते हैं हम
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ये ज़िंदगी की रात है तारीक किस क़दर
दोनों सिरों पे शम्अ जलाओ नशे में आओ
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लाख आबाद-ए-तमन्ना हो के दिल
फिर भी वीराँ है न जाने किस लिए
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ये हम को छोड़ के तन्हा कहाँ चले 'वामिक़'
अभी तो मंज़िल-ए-मेराज-ए-दार बाक़ी है
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मिरे फ़िक्र ओ फ़न को नई फ़ज़ा नए बाल-ओ-पर की तलाश है
जो क़फ़स को यास के फूँक दे मुझे उस शरर की तलाश है
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देखिए कब राह पर ठीक से उट्ठें क़दम
रात की मय का ख़ुमार देखिए कब तक रहे
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ऐ काश मिरे गोश ओ नज़र भी रहें साबित
जब हुस्न सुना जाए या नग़्मा नज़र आए
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हम को हाजत नहीं नक़ीबों की
शेर अपना नक़ीब है ख़ुद ही
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है जिस की ठोकरों में आब-ए-ज़ि़ंदगी 'वामिक़'
वो तिश्नगी का समुंदर दिखाई देता है
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उसे ज़िद कि 'वामिक़'-ए-शिकवा-गर किसी राज़ से न हो बा-ख़बर
मुझे नाज़ है कि ये दीदा-वर मिरी उम्र भर की तलाश है
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अरे ओ अदीब-ए-फ़सुर्दा-ख़ू अरे ओ मुग़न्नी-ए-रंग ओ बू
अभी हाशिए पे खड़ा है तू बहुत आगे अहल-ए-हुनर गए
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