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यासिर तहसीन

1996 | दिल्ली, भारत

यासिर तहसीन के शेर

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पहले तू इक झूटे ग़म में मिट जाने का नाटक रच

फिर दुनिया को जा जा कर बतला तू कितने दुख में है

तुम जो कहते हो चूम लोगे हमें

करने वाले कहा नहीं करते

चल दिए हैं बोल कर वापस लौटेंगे कभी

चल दिए हैं इक दफ़'अ फिर लौट आने के लिए

दग़ा से बाज़ आओ मीर 'जा'फ़र'

हमारे लोग मारे जा रहे हैं

जो तुम होगी तो दिल हवेली सराए होगी

सराए जिस में हसीन चेहरे रुका करेंगे

जब किसी सूरत नहीं है मुझ को एहसास-ए-वजूद

फिर मिरे किस काम का है ये जहान-ए-हस्त-ओ-बूद

इक दिन हर मंज़र काला हो जाएगा

सूरज उस की ज़ुल्फ़ों में खो जाएगा

आँसू करेंगे एक भी ज़ाए' आँख से

दरिया को पाट कर यहाँ सहरा बनाएँगे

ही जाता था ख़याल-ए-ग़ैर मेरे ज़ेहन में

'ऐन मौक़ा' पर तुम्हारी याद ने खटका किया

ये अब्र-ए-नौ हमारे किसी काम का नहीं

उन को पसंद ही नहीं बारिश में भीगना

दर्द-ए-दिल ज़िंदगी की ख़ुशी पी गया

इक समुंदर हमारी नदी पी गया

तिरी याद सीने से रुख़्सत हुई

ये बुढ़िया बड़े दिन से बीमार थी

तसव्वुर करो वो तुम्हें चाहते हैं

तसव्वुर करो ये तसव्वुर नहीं है

क्यों दे रहे हो दस्तकें चौखट पे बारहा

कितनी दफ़'अ बताऊँ कि घर पर नहीं हूँ मैं

आमद हुई थी मैं ने ही धुत्कार दी ग़ज़ल

ये कह के दूसरा कोई शा'इर तलाश कर

ख़ुदा की आँख हैं आँखें हमारी

ख़ुदा इन से ही दुनिया देखता है

रात हुई तो सब देवों ने मंदिर में

उस जोगन को शीश नवाए रक़्स किया

हाए वो शोख़ संदली क़ामत

जिस ने मुझ बे-नियाज़ को मारा

ज़िंदगी राएगाँ गई मेरी

उस गली से दुकाँ गई मेरी

उस ने दिन जल्दी ढलने की ख़्वाहिश की

धरती ने रफ़्तार बढ़ा दी गर्दिश की

बरसों काट लिए ये कह कर

कल को वस्ल हुआ जाता है

सितम ये है तिरी आँखों का पानी

मिरे सीने की मिट्टी काटता है

हम दोनों का 'इश्क़ मुकम्मल होना मुश्किल लगता है

तू जिंस-ए-जिन्नात की पैदा और मैं बेटा आदम का

ऐसी तन्हा रातों में ही आती है

एक ग़ज़ल जो शा'इर को खा जाती है

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