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ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

1940 | फतेहपुर, भारत

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र के शेर

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राब्ता क्यूँ रखूँ मैं दरिया से

प्यास बुझती है मेरी सहरा से

हम लोग तो मरते रहे क़िस्तों में हमेशा

फिर भी हमें जीने का हुनर क्यूँ नहीं आया

सहरा का सफ़र था तो शजर क्यूँ नहीं आया

माँगी थीं दुआएँ तो असर क्यूँ नहीं आया

मोम के लोग कड़ी धूप में बैठे हैं

आओ अब उन के पिघलने का तमाशा देखें

कुछ ऐसे कम-नज़र भी मुसाफ़िर हमें मिले

जो साया ढूँडते हैं शजर काटने के बा'द

आईने ही आईने थे हर तरफ़

फिर भी अपने आप में तन्हा था मैं

वो ज़ब्त था कि आह निकली ज़बान से

दिल पे हमारे कितने ही ख़ंजर गुज़र गए

रेत का हम लिबास पहने हैं

और हवा के सफ़र पे निकले हैं

तहज़ीब ही बाक़ी है अब शर्म-ओ-हया कुछ

किस दर्जा अब इंसान ये बेबाक हुआ है

उस जैसा दूसरा समाया निगाह में

कितने हसीन आँखों से पैकर गुज़र गए

हादसों से खेलने के बावजूद

आज भी वैसा हूँ कल जैसा था मैं

कोई कंकर फेंकने वाला नहीं

कैसे फिर हो झील में हलचल कोई

कोई पुरसाँ नहीं ग़मों का 'ज़फ़र'

देखने में हज़ार रिश्ते हैं

फैली हुई है चाँदनी एहसास में मिरे

ये कौन मेरी ज़ात के अंदर उतर गया

कोई भी शय हसीं लगती नहीं जब तेरे सिवा

ये बता शहर में हम तेरे सिवा क्या देखें

मिली जब उन्हें ता'बीर अपने ख़्वाबों की

फिर अपनी आँखों को नीलाम कर दिया सब ने

मैं ज़द पे तीरों के ख़ुद गया हूँ आज 'ज़फ़र'

तिरे निशाने को आसान कर दिया मैं ने

आप दरिया की रवानी से उलझें हरगिज़

तह में उस के कोई गिर्दाब भी हो सकता है

कोई फूल ही रखा आरज़ू चराग़

तमाम घर को बयाबान कर दिया मैं ने

तू ने नज़रें मिलाने की क़सम खाई है

आइना सामने रख कर तिरा चेहरा देखें

हैं जितने मोहरे यहाँ सारे पिटने वाले हैं

किसे मैं शह करूँ अपना किसे ग़ुलाम करूँ

उतरी हुई है धूप बदन के हिसार में

क़ुर्बत के फ़ासलों का सफ़र काटने के बा'द

मिरी चीख़ें फ़सीलों से कभी बाहर नहीं जातीं

शिकस्ता हो के गिरने पर सदा देती हैं दीवारें

बुझ गई है बस्तियों की आग इक मुद्दत हुई

ज़ेहन में लेकिन अभी तक शो'लगी मौजूद है

हमारी ज़ीस्त में ऐसे भी लम्हे आते हैं अक्सर

दरारों के तवस्सुत से हवा देती हैं दीवारें

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