ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र के शेर
राब्ता क्यूँ रखूँ मैं दरिया से
प्यास बुझती है मेरी सहरा से
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हम लोग तो मरते रहे क़िस्तों में हमेशा
फिर भी हमें जीने का हुनर क्यूँ नहीं आया
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सहरा का सफ़र था तो शजर क्यूँ नहीं आया
माँगी थीं दुआएँ तो असर क्यूँ नहीं आया
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मोम के लोग कड़ी धूप में आ बैठे हैं
आओ अब उन के पिघलने का तमाशा देखें
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कुछ ऐसे कम-नज़र भी मुसाफ़िर हमें मिले
जो साया ढूँडते हैं शजर काटने के बा'द
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आईने ही आईने थे हर तरफ़
फिर भी अपने आप में तन्हा था मैं
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वो ज़ब्त था कि आह न निकली ज़बान से
दिल पे हमारे कितने ही ख़ंजर गुज़र गए
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रेत का हम लिबास पहने हैं
और हवा के सफ़र पे निकले हैं
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तहज़ीब ही बाक़ी है न अब शर्म-ओ-हया कुछ
किस दर्जा अब इंसान ये बेबाक हुआ है
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उस जैसा दूसरा न समाया निगाह में
कितने हसीन आँखों से पैकर गुज़र गए
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हादसों से खेलने के बावजूद
आज भी वैसा हूँ कल जैसा था मैं
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कोई कंकर फेंकने वाला नहीं
कैसे फिर हो झील में हलचल कोई
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कोई पुरसाँ नहीं ग़मों का 'ज़फ़र'
देखने में हज़ार रिश्ते हैं
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फैली हुई है चाँदनी एहसास में मिरे
ये कौन मेरी ज़ात के अंदर उतर गया
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कोई भी शय हसीं लगती नहीं जब तेरे सिवा
ये बता शहर में हम तेरे सिवा क्या देखें
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मिली न जब उन्हें ता'बीर अपने ख़्वाबों की
फिर अपनी आँखों को नीलाम कर दिया सब ने
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मैं ज़द पे तीरों के ख़ुद आ गया हूँ आज 'ज़फ़र'
तिरे निशाने को आसान कर दिया मैं ने
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आप दरिया की रवानी से न उलझें हरगिज़
तह में उस के कोई गिर्दाब भी हो सकता है
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न कोई फूल ही रखा न आरज़ू न चराग़
तमाम घर को बयाबान कर दिया मैं ने
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तू ने नज़रें न मिलाने की क़सम खाई है
आइना सामने रख कर तिरा चेहरा देखें
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हैं जितने मोहरे यहाँ सारे पिटने वाले हैं
किसे मैं शह करूँ अपना किसे ग़ुलाम करूँ
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उतरी हुई है धूप बदन के हिसार में
क़ुर्बत के फ़ासलों का सफ़र काटने के बा'द
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मिरी चीख़ें फ़सीलों से कभी बाहर नहीं जातीं
शिकस्ता हो के गिरने पर सदा देती हैं दीवारें
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बुझ गई है बस्तियों की आग इक मुद्दत हुई
ज़ेहन में लेकिन अभी तक शो'लगी मौजूद है
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हमारी ज़ीस्त में ऐसे भी लम्हे आते हैं अक्सर
दरारों के तवस्सुत से हवा देती हैं दीवारें
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