ज़फ़र मुरादाबादी के शेर
मिरी उम्मीद का सूरज कि तेरी आस का चाँद
दिए तमाम ही रुख़ पर हवा के रक्खे थे
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बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए
मिरे हरीफ़ तुम्हारी दुआ से कम न हुए
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कारवाँ से जो भी बिछड़ा गर्द-ए-सहरा हो गया
टूट कर पत्ते कब अपनी शाख़ पर वापस हुए
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ख़ुश-गुमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ
ज़िंदगी तुझ से तअल्लुक़ खोखला साबित हुआ
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टैग : आसरा
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यूँही किसी की कोई बंदगी नहीं करता
बुतों के चेहरों पे तेवर ख़ुदा के रक्खे थे
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क्या ख़बर किस मोड़ पर बिखरे मता-ए-एहतियात
पत्थरों के शहर में हूँ आईना ओढ़े हुए
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तमाम फूल महकने लगे हैं खिल खिल कर
चमन में शोख़ी-ए-बाद-ए-सबा को छूते ही
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