ज़फ़र ताबिश के शेर
मंज़र से ला-मंज़र तक
आँखें ख़ाली ख़ाली हैं
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न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें
आओ ख़ामोशियों के लब खोलें
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जब भी झुक कर मिलता हूँ मैं लोगों से
हो जाता हूँ अपने क़द से ऊँचा मैं
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क्या जाने क्यूँ जलती है
सदियों से बिचारी धूप
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बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं
लेकिन अपने घर में आ कर सोया मैं
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सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब
रो रहा था नीला अम्बर टूट कर
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ब-ज़ाहिर यूँ तो मैं सिमटा हुआ हूँ
अगर सोचो तो फिर बिखरा हुआ हूँ
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सिर्फ़ ज़फ़र 'ताबिश' हैं हम
'ग़ालिब' 'मीर' न 'हाली' हैं
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