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ज़करिय़ा शाज़ के शेर

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गर्दिश-ए-अय्याम हमें रंज बहुत है

कुछ ख़्वाब थे ऐसे कि बिखरने के नहीं थे

मैं चुप रहा तो आँख से आँसू उबल पड़े

जब बोलने लगा मिरी आवाज़ फट गई

ये मोहब्बत है इसे देख तमाशा बना

मुझ से मिलना है तो मिल हद्द-ए-अदब से आगे

छोड़ आया हूँ पीछे सब आवाज़ों को

ख़ामोशी में दाख़िल होने वाला हूँ

आख़िर ये नाकाम मोहब्बत काम आई

तुझ को खो कर मैं ने ख़ुद को पाया है

सिर्फ़ हम ही तो नहीं टूटे हैं

रास्तों पर भी थकन तारी है

एक मुद्दत मैं ख़मोशी से रहा महव-ए-कलाम

तब कहीं जा के ये लफ़्ज़ों में मआनी आए

इक जैसे हैं दुख सुख सब के इक जैसी उम्मीदें

एक कहानी सब की क्या उनवान किसी का रक्खें

उस से आगे जाओगे तब जानेंगे

मंज़िल तक तो रास्ता तुम को लाया है

खिड़की तो 'शाज़' बंद मैं करता हूँ बार बार

लेकिन हवा-ए-शौक़ कि ज़िद पर अड़ी रहे

उन को भी उतारा है बड़े शौक़ से हम ने

जो नक़्श अभी दिल में उतरने के नहीं थे

जाने क्या बात है पूरे ही नहीं होते हैं

जाने क्या दिल में ख़सारे लिए फिरता हूँ मैं

जब भी घर के अंदर देखने लगता हूँ

खिड़की खोल के बाहर देखने लगता हूँ

ये अलग बात कि चलते रहे सब से आगे

वर्ना देखा ही नहीं तेरी तलब से आगे

दुख सहने की सज़ाओं में घिरा रहता है

शहर का शहर दुआओं में घिरा रहता है

अपने ही बस पीछे भागता रहता हूँ

ख़ुद को ही बस आगे नज़र के रक्खा है

तअल्लुक़ ही नहीं है जिन से मेरा

मैं उन ख़दशात में रक्खा हुआ हूँ

कुछ भी देखा नहीं था मैं ने जब

हर नज़ारा था मेरी आँखों में

ये कैसे मोड़ पर मैं गया हूँ

कि चलता हूँ तो चलता रास्ता है

'शाज़' ख़ुद में ही गँवाए हुए ख़ुद को रखना

हाथ जब तक कोई अपनी निशानी आए

किस क़यामत की घुटन तारी है

रूह पर कब से बदन तारी है

ज़माने हो गए हैं चलते चलते

कहाँ जाता ये दिल का रास्ता है

कैसे कह दूँ बीच अपने दीवार है जब

छोड़ने कोई दरवाज़े तक आया है

फाँदनी पड़ गई काँटों से भरी बाड़ हमें

जितने पैग़ाम थे फूलों की ज़बानी आए

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