ज़ीशान नियाज़ी के शेर
मुद्दतों ख़ुद से मुलाक़ात नहीं होती है
रात होती है मगर रात नहीं होती है
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फ़ज़ाएँ रक़्स में हैं और बरस रही है शराब
किसी ने जाम सू-ए-आसमाँ उछाला है
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मुझ से नाराज़ भी नहीं है वो
और उस को मना रहा हूँ मैं
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उस ने इतना किया नज़र-अंदाज़
सब की नज़रों में आ गए हैं हम
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एक चेहरा तिरा देखने के लिए
कितने चेहरों से हम को गुज़रना पड़ा
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पहले रुख़्सत हुई चमन से बहार
और अब ग़ैरत-ए-चमन भी गई
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सौ बार टूटने पे भी हारा नहीं हूँ मैं
मिट्टी का इक चराग़ हूँ तारा नहीं हूँ मैं
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अपने होने का है एहसास तिरे होने से
ग़ैर मुमकिन है मिरा तुझ से जुदा हो जाना
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मिरा साया भी मुझ से दूर है और तेरी यादें भी
मैं अब इस से ज़ियादा और तन्हा हो नहीं सकता
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मैं दिन के उजाले में तुझे सोच रहा हूँ
महसूस ये होता है कि कुछ रौशनी कम है
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अब भी रौशन हैं बुज़ुर्गों की हवेली के चराग़
हम किसी नक़्श को धुँदला नहीं होने देते
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दूर तक आवाज़ दे आया हूँ मैं
देखना ये है कि आता कौन है
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इश्क़ की कौन सी मंज़िल पे जुनूँ लाया है
होश ख़ुद आ के ये कहता है मुझे होश नहीं
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एहसान ख़ाक-ए-सहरा पे मजनूँ का है बहुत
वर्ना फ़लक पे उस का पहुँचना मुहाल था
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गुलों की तरह महकते हैं बाग़ में काँटे
अजीब रंग में दौर-ए-बहार आया है
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