ज़िया ज़मीर के शेर
दुश्मन-ए-जाँ है मगर जान से प्यारा भी है
ऐसा इस शहर में इक शख़्स हमारा भी है
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उस को नए सफ़र में नए हम-सफ़र के साथ
दिल ख़ुश हुआ है क्यों ये ज़िया देखते हुए
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तुम ने जो किताबों के हवाले किए जानाँ
वो फूल तो बालों में सजाने के लिए थे
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मसअला था तो बस अना का था
फ़ासले दरमियाँ के थे ही नहीं
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कुछ ज़ुल्म ओ सितम सहने की आदत भी है हम को
कुछ ये है कि दरबार में सुनवाई भी कम है
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टैग : अन्याय
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मुल्क तो मुल्क घरों पर भी है क़ब्ज़ा उस का
अब तो घर भी नहीं चलते हैं सियासत के बग़ैर
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ग़ज़ब तो ये है वो ऐसा कह के ख़ुशी का इज़हार कर रहे थे
कि हम ने दस्तारें बेच दी हैं सरों को लेकिन बचा लिया है
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हम तो तेरी कहानी लिख आए
तू ने लिक्खा है इम्तिहान में क्या
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ज़िंदगी से ख़ुशी की है उम्मीद
पर ये उम्मीद भी ज़रा सी है
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आज ये शाम भीगती क्यों है
तुम कहीं छुप के रो रही हो क्या
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ज़िंदगी रोक के अक्सर यही कहती है मुझे
तुझ को जाना था किधर और किधर आ गया है
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उस से कहना कि बुरा ख़्वाब था अब याद नहीं
मेरे बारे में जो पूछे कभी दुनिया तुझ से
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नींद का उस को नशा हम को जगाने की हवस
ख़्वाब में आते हुए नींद चुराते हुए हम
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इश्क़ के मारों को आदाब कहाँ आते हैं
तेरे कूचे में चले आए इजाज़त के बग़ैर
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मैं ने हँस कर डाँट दिया था प्यार के पहले शब्दों पर
उस ने फिर कोशिश ही नहीं की वो ख़ुद्दार बला की थी
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उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम
बैठेंगे कभी साथ तो तन्हाई बनेगी
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कोई आसाँ है भला रिश्ते को क़ाएम रखना
गिरती दीवार है हम जिस को सँभाले हुए हैं
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हम को इतना गिरा-पड़ा न समझ
ऐ ज़माने किसी का प्यार हैं हम
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पत्थर मार के चौराहे पर इक औरत को मार दिया
सब ने मिल कर फिर ये सोचा उस ने ग़लती क्या की थी
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क्यों भला कच्चे मकानों का तुम्हें आया ख़याल
तुम तो दरिया थे तुम्हें तेज़ गुज़र जाना था
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ख़ुश्क आँखें लिए हँसता हुआ देखो जिस को
उस को सहरा नहीं कह देना समुंदर कहना
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उस को जाते हुए देखा था पुकारा था कहाँ
रोकते किस तरह वो शख़्स हमारा था कहाँ
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किसी बच्चे से पिंजरा खुल गया है
परिंदों की रिहाई हो रही है
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हँसी में टाल दे फिर से हमारी हर ख़्वाहिश
फिर एक बार थपक दे हमारा गाल ज़रा
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बद-दुआ' अपने लिए की तो बहुत थी मैं ने
हाँ मगर राह में हाइल जो दुआ थी तेरी
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मरते मरते हम को इक बेचैनी सी थी
एक पुराना दुश्मन था जो याद आया था
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आप तो आएँगे ही ख़ास तमाशाई जो हैं
दार पे हम जो करेंगे वो ग़ज़ब देखिएगा
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ये इश्क़ चीज़ अजब है कि इस को क्या कहिए
वहीं पे थोड़ा सा कम है जहाँ ज़ियादा है
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साथ साहिल पे गुज़रते हुए देखी थी कभी
याद है अब भी समुंदर में उतरती हुई शाम
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होंटों से उस दर्द की ख़ुशबू आ कर जिस्म में फैल गई
कितना दर्द इकट्ठा था उस ठंडी सी पेशानी में
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दानाओं ने की दानाई मूँद लीं आँखें
चौराहे पर क़त्ल हुआ पागल ने देखा
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बहुत अच्छा है कुछ चीज़ें नई आई हैं घर में
मगर देखो कई चीज़ें पुरानी पड़ रही हैं
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मुख़्तसर कीजिए कहानी को
आप तो दे रहे हैं तूल हमें
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दर्द की धूप ढले ग़म के ज़माने जाएँ
देखिए रूह से कब दाग़ पुराने जाएँ
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किसी की आँखों में जल बुझे हैं किसी का चेहरा लगा लिया है
ये मस्लहत है या बुज़-दिली है कि हम ने ख़ुद को छुपा लिया है
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लहर ख़ुद पर है पशेमान कि उस की ज़द में
नन्हे हाथों से बना रेत का घर आ गया है
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तुझ से कहा था ख़ुशबुएँ उस के बदन की लाइयो
मेरा ये काम आज तक तू ने सबा नहीं किया
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मैं नहीं था तो यहाँ वाक़ई वीराना था
मेरे आने से ये वीराना कहाँ खो गया है
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दर्द के सारे ही क़िस्सों की याद-दहानी कर लेना
हिज्र की रात बहुत लम्बी है एक कहानी कम न पड़े
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हिज्र की रात वो ख़त भी जलाए तो कैसे
उस के घर में कोई आतिश-दान नहीं
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महफ़िल मेरे दम से महफ़िल फिर भी मुझ में
एक भयानक तन्हाई भी पोशीदा है
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कैसी ताबीर की हसरत कि 'ज़िया' बरसों से
ना-मुराद आँखों ने देखा ही नहीं ख़्वाब कोई
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