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Ziauddin Ahmad Shakeb's Photo'

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब

1933 - 2021 | लंदन, यूनाइटेड किंगडम

हिन्द-ईरान संबंधों पर शोध करने वाले प्रमुख इतिहासकार। प्राचीन अरबी-फ़ारसी पांडुलिपियों के विशेषज्ञ

हिन्द-ईरान संबंधों पर शोध करने वाले प्रमुख इतिहासकार। प्राचीन अरबी-फ़ारसी पांडुलिपियों के विशेषज्ञ

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब के शेर

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दीवाना-ए-जुस्तुजू हो गया चाँद

बादल से गिर के खो गया चाँद

मुख़्तसर बात-चीत अच्छी है

लेकिन इतना भी इख़्तिसार कर

पड़ती नहीं है दिल पे तिरे हुस्न की किरन

किस सम्त मेरे चाँद दरख़्शाँ है आज-कल

अक़्ल कुछ ज़ीस्त की कफ़ील नहीं

ज़िंदगी इतनी बे-सबील नहीं

आरिज़ से तिरे सुब्ह की तोहमत उठेगी

ज़ुल्फ़ों पे तिरी शाम का इल्ज़ाम रहेगा

यक़ीं गर करो तुम बहुत ख़ूब है

ये बे-जा तबस्सुम बहुत ख़ूब है

आप के साथ मुस्कुराने में

ज़िंदगी एक फूल होती है

फ़िक्र-मंदी फ़ुज़ूल होती है

कोशिश-ए-दिल क़ुबूल होती है

मेरी तज्वीज़ पर ख़फ़ा क्यूँ हो

बात कुछ अक़्ल के ख़िलाफ़ नहीं

हमें भी ज़रूरत थी इक शख़्स की

ये हुस्न-ए-तसादुम बहुत ख़ूब है

इसी तरह बातें किए जाइए

ये तर्ज़-ए-तकल्लुम बहुत ख़ूब है

इतने नादिम होइए आख़िर

अच्छे-अच्छों से भूल होती है

गोश-ए-मुश्ताक़-ए-सदा-ए-नाला-ए-दिल अब कहाँ

शेर अगर दिल के लहू में डूब कर निकले तो क्या

हम से वाइज़ ने बात की होती

गुमरही अपनी बे-दलील नहीं

जब तक कि मोहब्बत का चलन आम रहेगा

हर लब पे मिरा ज़िक्र मिरा नाम रहेगा

पास-ए-पिंदार-ए-तबीअत दिल अगर रख ले तो क्या

है वजूद-ए-दर्द मोहकम ज़ब्त-ए-ग़म कर ले तो क्या

गो उन्हें राह-ए-इंहिराफ़ नहीं

फिर भी उम्मीद-ए-ए'तिराफ़ नहीं

जुनूँ शोला-सामाँ ख़िरद शबनम-अफ़्शाँ

ख़ुदा जाने ये जान जीते कि हारे

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