ज़ुल्फ़िक़ार आदिल के शेर
रवानी में नज़र आता है जो भी
उसे तस्लीम कर लेते हैं पानी
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बैठे बैठे फेंक दिया है आतिश-दान में क्या क्या कुछ
मौसम इतना सर्द नहीं था जितनी आग जला ली है
वापस पलट रहे हैं अज़ल की तलाश में
मंसूख़ आप अपना लिखा कर रहे हैं हम
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टैग : अज़ल
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ये किस ने हात पेशानी पे रक्खा
हमारी नींद पूरी हो गई है
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बैठे बैठे इसी ग़ुबार के साथ
अब तो उड़ना भी आ गया है मुझे
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यूँ उठे इक दिन कि लोगों को हुआ
अब्र का धोका हमारी ख़ाक पर
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दश्त-ओ-दरिया की इब्तिदा से हैं
हम वही तीन दिन के प्यासे हैं
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'आदिल' सजे हुए हैं सभी ख़्वाब ख़्वान पर
और इंतिज़ार-ए-ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कर रहे हैं हम
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