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शेर
दिल आबाद कहाँ रह पाए उस की याद भुला देने से
कमरा वीराँ हो जाता है इक तस्वीर हटा देने से
जलील ’आली’
नज़्म
शिकवा
जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
रक़ीब से!
आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
व-यबक़ा-वज्ह-ओ-रब्बिक (हम देखेंगे)
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी