शकेब जलाली के शेर
हम-सफ़र रह गए बहुत पीछे
आओ कुछ देर को ठहर जाएँ
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ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
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टैग : अब्र
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लोग देते रहे क्या क्या न दिलासे मुझ को
ज़ख़्म गहरा ही सही ज़ख़्म है भर जाएगा
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अभी अरमान कुछ बाक़ी हैं दिल में
मुझे फिर आज़माया जा रहा है
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जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत
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प्यार की जोत से घर घर है चराग़ाँ वर्ना
एक भी शम्अ न रौशन हो हवा के डर से
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आलम में जिस की धूम थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख
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वो अलविदा'अ का मंज़र वो भीगती पलकें
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है
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टैग : विदाई
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बद-क़िस्मती को ये भी गवारा न हो सका
हम जिस पे मर मिटे वो हमारा न हो सका
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टैग : क़िस्मत
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वहाँ की रौशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
मैं उस गली में अकेला था और साए बहुत
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इस शोर-ए-तलातुम में कोई किस को पुकारे
कानों में यहाँ अपनी सदा तक नहीं आती
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जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के
रहता था सामने तिरा चेहरा खुला हुआ
पढ़ता था मैं किताब यही हर क्लास में
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तू ने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब न ढाँप मुझे डूबते भी देख
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क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा है
संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे
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दिल सा अनमोल रतन कौन ख़रीदेगा 'शकेब'
जब बिकेगा तो ये बे-दाम ही बिक जाएगा
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लोग दुश्मन हुए उसी के 'शकेब'
काम जिस मेहरबान से निकला
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आ के पत्थर तो मिरे सेहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे
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कोई इस दिल का हाल क्या जाने
एक ख़्वाहिश हज़ार तह-ख़ाने
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पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें
फिर आइने में चूम लिया अपने-आप को
उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी
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साहिल तमाम अश्क-ए-नदामत से अट गया
दरिया से कोई शख़्स तो प्यासा पलट गया
कहता है आफ़्ताब ज़रा देखना कि हम
डूबे थे गहरी रात में काले हुए नहीं
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मल्बूस ख़ुश-नुमा हैं मगर जिस्म खोखले
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर
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आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे
तितलियाँ मंडला रही हैं काँच के गुल-दान पर
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'शकेब' अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
हम उस से बच के चलते हैं जो रस्ता आम हो जाए
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एक अपना दिया जलाने को
तुम ने लाखों दिए बुझाए हैं
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भीगी हुई इक शाम की दहलीज़ पे बैठे
हम दिल के सुलगने का सबब सोच रहे हैं
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टैग : शाम
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जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मिरी तरह से अकेला दिखाई देता है
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वक़्त ने ये कहा है रुक रुक कर
आज के दोस्त कल के बेगाने
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मुझ से मिलने शब-ए-ग़म और तो कौन आएगा
मेरा साया है जो दीवार पे जम जाएगा
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वक़्त की डोर ख़ुदा जाने कहाँ से टूटे
किस घड़ी सर पे ये लटकी हुई तलवार गिरे
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कितने ही ज़ख़्म हैं मिरे इक ज़ख़्म में छुपे
कितने ही तीर आने लगे इक निशान पर
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टैग : तीर
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मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरूँ
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे
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फ़सील-ए-जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
हुदूद-ए-वक़्त से आगे निकल गया है कोई
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कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
आईना ग़ौर से तू ने कभी देखा ही नहीं
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न इतनी तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है
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यूँ तो सारा चमन हमारा है
फूल जितने भी हैं पराए हैं
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सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह
देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में
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गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
हरा-भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था
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बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
मुसाफ़िरों को ग़नीमत है ये सराए बहुत
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दर्द के मौसम का क्या होगा असर अंजान पर
दोस्तो पानी कभी रुकता नहीं ढलवान पर
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