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कलीम आजिज़

1926 - 2015 | पटना, भारत

क्लासिकी लहजे के प्रमुख और लोकप्रिय शायर

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कलीम आजिज़ के शेर

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वो कहते हैं हर चोट पर मुस्कुराओ

वफ़ा याद रक्खो सितम भूल जाओ

बात चाहे बे-सलीक़ा हो 'कलीम'

बात कहने का सलीक़ा चाहिए

दिल दर्द की भट्टी में कई बार जले है

तब एक ग़ज़ल हुस्न के साँचे में ढले है

ज़िंदगी माइल-ए-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ आज भी है

कल भी था सीने पे इक संग-ए-गिराँ आज भी है

ये तर्ज़-ए-ख़ास है कोई कहाँ से लाएगा

जो हम कहेंगे किसी से कहा जाएगा

ये कैसी बहार-ए-चमन आई कि चमन में

वीराना ही वीराना है ता-हद्द-ए-नज़र आज

हाँ कुछ भी तो देरीना मोहब्बत का भरम रख

दिल से दुनिया को दिखाने के लिए

आज़माना है तो बाज़ू दिल की क़ुव्वत

तू भी शमशीर उठा हम भी ग़ज़ल कहते हैं

ग़रज़ किसी से दोस्तो कभू रखियो

बस अपने हाथ यहाँ अपनी अबरू रखियो

रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव

चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो

उठते हुओं को सब ने सहारा दिया 'कलीम'

गिरते हुए ग़रीब सँभाले कहाँ गए

मिरी शाएरी में रक़्स-ए-जाम मय की रंग-फ़िशानियाँ

वही दुख-भरों की हिकायतें वही दिल-जलों की कहानियाँ

सुनेगा कौन मेरी चाक-दामानी का अफ़्साना

यहाँ सब अपने अपने पैरहन की बात करते हैं

दिन एक सितम एक सितम रात करो हो

वो दोस्त हो दुश्मन को भी तुम मात करो हो

ग़म है तो कोई लुत्फ़ नहीं बिस्तर-ए-गुल पर

जी ख़ुश है तो काँटों पे भी आराम बहुत है

मेरी ग़ज़ल को मेरी जाँ फ़क़त ग़ज़ल समझ

इक आइना है जो हर दम तिरे मुक़ाबिल है

अपना दिल सीना-ए-अशआर में रख देते हैं

कुछ हक़ीक़त भी ज़रूरी है फ़साने के लिए

अपना लहू भर कर लोगों को बाँट गए पैमाने लोग

दुनिया भर को याद रहेंगे हम जैसे दीवाने लोग

मय-कदे की तरफ़ चला ज़ाहिद

सुब्ह का भूला शाम घर आया

तुम्हें याद ही आऊँ ये है और बात वर्ना

मैं नहीं हूँ दूर इतना कि सलाम तक पहुँचे

सुना है हमें बेवफ़ा तुम कहो हो

ज़रा हम से आँखें मिला लो तो जानें

उन्हीं के गीत ज़माने में गाए जाएँगे

जो चोट खाएँगे और मुस्कुराए जाएँगे

क्या सितम है कि वो ज़ालिम भी है महबूब भी है

याद करते बने और भुलाए बने

अब इंसानों की बस्ती का ये आलम है कि मत पूछो

लगे है आग इक घर में तो हम-साया हवा दे है

शिकायत उन से करना गो मुसीबत मोल लेना है

मगर 'आजिज़' ग़ज़ल हम बे-सुनाए दम नहीं लेंगे

मरना तो बहुत सहल सी इक बात लगे है

जीना ही मोहब्बत में करामात लगे है

इश्क़ में मौत का नाम है ज़िंदगी

जिस को जीना हो मरना गवारा करे

गुज़र जाएँगे जब दिन गुज़रे आलम याद आएँगे

हमें तुम याद आओगे तुम्हें हम याद आएँगे

बहुत दुश्वार समझाना है ग़म का

समझ लेने में दुश्वारी नहीं है

हमारे क़त्ल से क़ातिल को तजरबा ये हुआ

लहू लहू भी है मेहंदी भी है शराब भी है

ख़मोशी में हर बात बन जाए है

जो बोले है दीवाना कहलाए है

वो सितम ढाए तो क्या करे उसे क्या ख़बर कि वफ़ा है क्या?

तू उसी को प्यार करे है क्यूँ ये 'कलीम' तुझ को हुआ है क्या?

तपिश पतिंगों को बख़्श देंगे लहू चराग़ों में ढाल देंगे

हम उन की महफ़िल में रह गए हैं तो उन की महफ़िल सँभाल देंगे

तुझे संग-दिल ये पता है क्या कि दुखे दिलों की सदा है क्या?

कभी चोट तू ने भी खाई है कभी तेरा दिल भी दुखा है क्या?

दुनिया में ग़रीबों को दो काम ही आते हैं

खाने के लिए जीना जीने के लिए खाना

करे है अदावत भी वो इस अदा से

लगे है कि जैसे मोहब्बत करे है

ज़रा देख आइना मेरी वफ़ा का

कि तू कैसा था अब कैसा लगे है

जाने रूठ के बैठा है दिल का चैन कहाँ

मिले तो उस को हमारा कोई सलाम कहे

मैं मोहब्बत छुपाऊँ तू अदावत छुपा

यही राज़ में अब है वही राज़ में है

मिरा हाल पूछ के हम-नशीं मिरे सोज़-ए-दिल को हवा दे

बस यही दुआ मैं करूँ हूँ अब कि ये ग़म किसी को ख़ुदा दे

वो बात ज़रा सी जिसे कहते हैं ग़म-ए-दिल

समझाने में इक उम्र गुज़र जाए है प्यारे

इक घर भी सलामत नहीं अब शहर-ए-वफ़ा में

तू आग लगाने को किधर जाए है प्यारे

मय में कोई ख़ामी है साग़र में कोई खोट

पीना नहीं आए है तो छलकाए चलो हो

मौसम-ए-गुल हमें जब याद आया

जितना ग़म भूले थे सब याद आया

दामन पे कोई छींट ख़ंजर पे कोई दाग़

तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो

इधर हम दिखाते हैं ग़ज़ल का आइना तुझ को

ये किस ने कह दिया गेसू तिरे बरहम नहीं प्यारे

भला आदमी था नादान निकला

सुना है किसी से मोहब्बत करे है

दिल थाम के करवट पे लिए जाऊँ हूँ करवट

वो आग लगी है कि बुझाए बने है

कल कहते रहे हैं वही कल कहते रहेंगे

हर दौर में हम उन पे ग़ज़ल कहते रहेंगे

वही तो उम्र मेरे दर्द-ए-दिल की भी होगी

तिरे शबाब का ये कौन साल है प्यारे

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