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मोहम्मद अल्वी के शेर
ढूँडने में भी मज़ा आता है
कोई शय रख के भुला दी जाए
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हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका न कर
मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुए भी देख
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धूप ने गुज़ारिश की
एक बूँद बारिश की
कमरे में मज़े की रौशनी हो
अच्छी सी कोई किताब देखूँ
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मौत भी दूर बहुत दूर कहीं फिरती है
कौन अब आ के असीरों को रिहाई देगा
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टैग : मौत
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गाड़ी आती है लेकिन आती ही नहीं
रेल की पटरी देख के थक जाता हूँ मैं
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नज़रों से नापता है समुंदर की वुसअतें
साहिल पे इक शख़्स अकेला खड़ा हुआ
ऐसा हंगामा न था जंगल में
शहर में आए तो डर लगता था
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टैग : शहर
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अभी दो चार ही बूँदें गिरीं हैं
मगर मौसम नशीला हो गया है
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अब न 'ग़ालिब' से शिकायत है न शिकवा 'मीर' का
बन गया मैं भी निशाना रेख़्ता के तीर का
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टैग : रेख़्ता
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पर तोल के बैठी है मगर उड़ती नहीं है
तस्वीर से चिड़िया को उड़ा देना चाहिए
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गवाही देता वही मेरी बे-गुनाही की
वो मर गया तो उसे अब कहाँ से लाऊँ मैं
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सामने दीवार पर कुछ दाग़ थे
ग़ौर से देखा तो चेहरे हो गए
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दिन भर बच्चों ने मिल कर पत्थर फेंके फल तोड़े
साँझ हुई तो पंछी मिल कर रोने लगे दरख़्तों पर
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कहाँ भटकते फिरोगे 'अल्वी'
सड़क से पूछो किधर गई है
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सर्दी में दिन सर्द मिला
हर मौसम बेदर्द मिला
बहुत ख़ुश हुए आईना देख कर
यहाँ कोई सानी हमारा न था
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अरे ये दिल और इतना ख़ाली
कोई मुसीबत ही पाल रखिए
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आसमान पर जा पहुँचूँ
अल्लाह तेरा नाम लिखूँ
हैरान मत हो तैरती मछली को देख कर
पानी में रौशनी को उतरते हुए भी देख
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टैग : पानी
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रात पड़े घर जाना है
सुब्ह तलक मर जाना है
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टैग : घर
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ऑफ़िस में भी घर को खुला पाता हूँ मैं
टेबल पर सर रख कर सो जाता हूँ मैं
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मरने के डर से और कहाँ तक जियेगा तू
जीने के दिन तमाम हुए इंतिक़ाल कर
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रात मिली तन्हाई मिली और जाम मिला
घर से निकले तो क्या क्या आराम मिला
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'अल्वी' ने आज दिन में कहानी सुनाई थी
शायद इसी वजह से मैं रस्ता भटक गया
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बुला रहा था कोई चीख़ चीख़ कर मुझ को
कुएँ में झाँक के देखा तो मैं ही अंदर था
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देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था
ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर
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टैग : गुनाह
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मुँह-ज़बानी क़ुरआन पढ़ते थे
पहले बच्चे भी कितने बूढ़े थे
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'अल्वी' ख़्वाहिश भी थी बाँझ
जज़्बा भी ना-मर्द मिला
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छोड़ गया मुझ को 'अल्वी'
शायद वो जल्दी में था
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'अल्वी' ये मो'जिज़ा है दिसम्बर की धूप का
सारे मकान शहर के धोए हुए से हैं
ग़म बहुत दिन मुफ़्त की खाता रहा
अब उसे दिल से निकाला चाहिए
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कुछ तो इस दिल को सज़ा दी जाए
उस की तस्वीर हटा दी जाए
उतार फेंकूँ बदन से फटी पुरानी क़मीस
बदन क़मीस से बढ़ कर कटा-फटा देखूँ
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सुब्ह से खोद रहा हूँ घर को
ख़्वाब देखा है ख़ज़ाने वाला
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मुतमइन है वो बना कर दुनिया
कौन होता हूँ मैं ढाने वाला
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मैं नाहक़ दिन काट रहा हूँ
कौन यहाँ सौ साल जिया है
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रखते हो अगर आँख तो बाहर से न देखो
देखो मुझे अंदर से बहुत टूट चुका हूँ
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अच्छे दिन कब आएँगे
क्या यूँ ही मर जाएँगे
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कितना मुश्किल है ज़िंदगी करना
और न सोचो तो कितना आसाँ है
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और बाज़ार से क्या ले जाऊँ
पहली बारिश का मज़ा ले जाऊँ
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टैग : बारिश
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घर में क्या आया कि मुझ को
दीवारों ने घेर लिया है
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बिछड़ते वक़्त ऐसा भी हुआ है
किसी की सिसकियाँ अच्छी लगी हैं
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माना कि तू ज़हीन भी है ख़ूब-रू भी है
तुझ सा न मैं हुआ तो भला क्या बुरा हुआ
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काँटे की तरह सूख के रह जाओगे 'अल्वी'
छोड़ो ये ग़ज़ल-गोई ये बीमारी बुरी है
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थोड़ी सर्दी ज़रा सा नज़ला है
शायरी का मिज़ाज पतला है
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बिखेर दे मुझे चारों तरफ़ ख़लाओं में
कुछ इस तरह से अलग कर कि जुड़ न पाऊँ मैं
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क्यूँ सर खपा रहे हो मज़ामीं की खोज में
कर लो जदीद शायरी लफ़्ज़ों को जोड़ कर
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तुड़ा-मुड़ा है मगर ख़ुदा है
इसे तो साहब सँभाल रखिए
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