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उपन्यासिका1
पत्र10
सआदत हसन मंटो के उद्धरण
रोटी खाने के मुताल्लिक़ एक मोटा सा उसूल है कि हर लुक़मा अच्छी तरह चबा कर खाओ। लुआब-दहन में उसे ख़ूब हल होने दो ताकि मेअ्दे पर ज़ियादा बोझ ना पड़े और इसकी ग़िजाईयत बरक़रार रहे। पढ़ने के लिए भी यही मोटा उसूल है कि हर लफ़्ज़ को, हर सतर को, हर ख़्याल को अच्छी तरह ज़हन में चबाओ। उस लुआब को जो पढ़ने से तुम्हारे दिमाग़ में पैदा होगा, अच्छी तरह हल करो ताकि जो कुछ तुमने पढ़ा है, अच्छी तरह हज़म हो सके। अगर तुमने ऐसा ना किया तो उस के नताइज बुरे होंगे जिसके लिए तुम लिखने वाले को ज़िम्मेदार ना ठहरा सकोगे। वो रोटी जो अच्छी तरह चबा कर नहीं खाई गई तुम्हारी बद-हज़्मी की ज़िम्मेदार कैसे हो सकती है?
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कोई अफ़साना या अदब-पारा फ़ोह्श नहीं हो सकता। जब तक लिखने वाले का मक़सद अदब-निगारी है। अदब ब-हैसीयत-ए-अदब के कभी फ़ोह्श नहीं होता।
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मेरे अफ़साने तंदुरुस्त और सेहत-मंद लोगों के लिए हैं। नॉर्मल इन्सानों के लिए, जो औरत के सीने को औरत का सीना ही समझते हैं और इससे ज़्यादा आगे नहीं बढ़ते।
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ज़बान में बहुत कम लफ़्ज़ फ़ोह्श होते हैं। तरीक़-ए-इस्तेमाल ही एक ऐसी चीज़ है जो पाकीज़ा से पाकीज़ा अल्फ़ाज़ को भी फ़ोह्श बना देता है।
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शराब, अफ़ीम, चरस, भंग और तंबाकू का आलमगीर इस्तेमाल इसलिए नहीं होता कि ये चीज़ें फ़रहत या दिल-बस्तगी का सामान मुहय्या करती हैं, बल्कि उनका इस्तेमाल सिर्फ़ इसलिए किया जाता है कि ज़मीर के मुतालिबात से ख़ुद को छुपा लिया जाए।
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टैग : शराब
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आख़िर कब तक अदीब एक नाकारा आदमी समझा जाएगा। कब तक शायर को एक गप्पें हाँकने वाला मुतसव्वर किया जाएगा, कब तक हमारे लिट्रेचर पर चंद ख़ुद-ग़रज़ और हवस-परस्त लोगों की हुक्मुरानी रहेगी। कब तक?
इस्तिबदाद की आँधियाँ टिमटिमाते चिराग़ों को गुल कर सकती हैं मगर इन्क़िलाब के शोअ्लों पर उनका कोई बस नहीं चलता।
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मौजूदा निज़ाम के तहत जिसकी बागडोर सिर्फ़ मर्दों के हाथ में है, औरत ख़्वाह वो इस्मत फ़रोश हो या बा-इस्मत, हमेशा दबी रही है। मर्द को इख़्तियार होगा कि वो उसके मुताल्लिक़ जो चाहे राय क़ायम करे।
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हर हसीन चीज़ इन्सान के दिल में अपनी वक़्अत पैदा कर देती है। ख़्वाह इन्सान ग़ैर-तरबियत-याफ़्ता ही क्यों ना हो?
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जिस तरह बा-इस्मत औरतें वेश्याओं की तरफ़ हैरत और तअज्जुब से देखती हैं, ठीक उसी तरह वो भी उनकी तरफ़ उसी नज़र से देखती हैं।
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हिन्दुस्तान में जिस चीज़ को आर्ट कहा जाता है, अभी तक मैं उसके मुताल्लिक़ फ़ैसला ही नहीं कर सका कि वो क्या है?
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मैं तहज़ीब-ओ-तमद्दुन और सोसाइटी की चोली क्या उतारुंगा जो है ही नंगी... मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इस लिए कि ये मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का है। लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और भी ज़ियादा नुमायाँ हो जाए। ये मेरा ख़ास अंदाज़, मेरा ख़ास तर्ज़ है जिसे फ़ोह्श-निगारी, तरक़्क़ी-पसंदी और ख़ुदा मालूम क्या कुछ कहा जाता है। लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमबख़्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती।
मैं बग़ावत चाहता हूँ। हर उस फ़र्द के ख़िलाफ़ बग़ावत चाहता हूँ जो हमसे मेहनत कराता है मगर उसके दाम अदा नहीं करता।
हमारे अफ़सानवी अदब में जिन औरतों का ज़िक्र किया गया है, उनमें से अस्सी फ़ीसदी ऐसी हैं जो हक़ीक़त से कोसों दूर हैं। उनमें और असल औरतों में वही फ़र्क़ है, जो टकसाली रुपये और जाली रुपये में होता है।
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टैग : उर्दू कथा साहित्य
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पहले मज़हब सीनों में होता था आजकल टोपियों में होता है। सियासत भी अब टोपियों में चली आई है। ज़िंदाबाद टोपियाँ।
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एक बा-इस्मत औरत के सीने में मुहब्बत से आरी दिल हो सकता है और इस के बरअक्स चकले की एक अदना-तरीन वेश्या मुहब्बत से भरपूर दिल की मालिक हो सकती है।
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हर औरत वेश्या नहीं होती लेकिन हर वेश्या औरत होती है। इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए।
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मेरे नज़दीक वो बाप अपनी औलाद को जिन्सी बेदारी का मौक़ा देते हैं जो दिन को बंद कमरों में कई कई घंटे अपनी बीवी से सर दबवाने का बहाना लगा कर हमबिस्तरी करते हैं।
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हिन्दी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त ज़ाया करते हैं। मुसलमान, उर्दू के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क्यों बेक़रार हैं...? ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है और ना इन्सानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं।
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अगर मैं किसी औरत के सीने का ज़िक्र करना चाहूँगा तो उसे औरत का सीना ही कहूँगा। औरत की छातियों को आप मूंगफ़ली, मेज़ या उस्तुरा नहीं कह सकते... यूँ तो बाअज़ हज़रात के नज़दीक औरत का वुजूद ही फ़ोह्श है, मगर उसका क्या ईलाज हो सकता है?
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याद रखिए वतन की ख़िदमत शिकम-सेर लोग कभी नहीं कर सकेंगे। वज़्नी मेअ्दे के साथ जो शख़्स वतन की ख़िदमत के लिए आगे बढ़े, उसे लात मार कर बाहर निकाल दीजिए।
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ज़माने के जिस दौर से हम इस वक़्त गुज़र रहे हैं अगर आप इससे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िये। अगर आप इन अफ़्सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इस का मतलब है कि ये ज़माना नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है... मुझ में जो बुराईयाँ हैं, वो इस अह्द की बुराईयां हैं... मेरी तहरीर में कोई नक़्स नहीं। जिस नक़्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दर असल मौजूदा निज़ाम का नक़्स है।
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रूहानियत यक़ीनन कोई चीज़ है, आज के साईंस के ज़माने में जिसमें एटम बम तैयार किया जा सकता है और जरासीम फैलाए जा सकते हैं, ये चीज़ बाअज़ अस्हाब के नज़दीक मुहमल हो सकती है लेकिन वो लोग जो नमाज़ और रोज़े, आरती और कीर्तन से रुहानी तहारत हासिल करते हैं हम उन्हें पागल नहीं कह सकते। और मैं समझता हूँ कि बद-किरदारों, क़ातिलों और सफ़्फ़ाकों की नजात का रास्ता सिर्फ़ रुहानी तालीम है, मुल्लाई तरीक़ पर नहीं, तरक़्क़ी-पसंद उसूलों पर।
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जिस तरह जिस्मानी सेहत बरक़रार रखने के लिए कसरत की ज़रूरत है, ठीक उसी तरह ज़हन की सेहत बरक़रार रखने के लिए ज़हनी वरज़िश की ज़रूरत है।
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किसी भी औरत से इश्क़ किया जाये तो तगड़ा एक ही क़िस्म का बनता है ‘हुस्न, इश्क़ और मौत’ या ‘आशिक़, माशूक़ और वस्ल’
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टैग : लव
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मेहनत-कश मज़दूरों की सही नफ़सियात कुछ उनका अपना पसीना ही ब-तरीक़-ए-अहसन बयान कर सकता है। उसको दौलत के तौर पर इस्तेमाल कर के उस के पसीने की रौशनाई में क़लम डुबो-डुबो कर ग्रांडील लफ़्ज़ों में मंशूर लिखने वाले, हो सकता है बड़े मुख़्लिस आदमी हों, मगर माफ़ कीजिए मैं अब भी उन्हें बहरूपिया समझता हूँ।
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पब्लिक ऐसी फिल्में चाहती हैं जिनका ताल्लुक़ बराह-ए-रास्त उनके दिल से हो। जिस्मानी हिसिय्यात से मुताल्लिक़ चीज़ें ज़ियादा देरपा नहीं होतीं मगर जिन चीज़ों का ताल्लुक़ रूह से होता है, देर तक क़ायम रहती हैं।
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मैं सोचता हूँ अगर बंदर से इन्सान बन कर हम इतनी क़यामतें ढा सकते हैं, इस क़दर फ़ित्ने बरपा कर सकते हैं तो वापिस बंदर बन कर हम ख़ुदा मालूम क्या कुछ कर सकते हैं।
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कहा जाता है कि अदीबों के आसाब पर औरत सवार है। सच्च तो ये है कि हुबूत-ए-आदम से लेकर अब तक हर मर्द के आसाब पर औरत सवार रही है, और क्यों ना रहे। मर्द के आसाब पर क्या हाथी घोड़ों को सवार होना चाहिए। जब कबूतर, कबूतरियों को देखकर गटकते हैं तो मर्द, औरतों को देखकर एक ग़ज़ल या अफ़्साना क्यों ना लिखें, औरतें कबूतरियों से कहीं ज़्यादा दिलचस्प, ख़ूबसूरत और फ़िक्र-अंगेज़ हैं। क्या मैं झूट कहता हूँ?
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मुझे नाम निहाद कम्यूनिस्टों से बड़ी चिड़ है। वो लोग मुझे बहुत खलते हैं जो नर्म-नर्म सोफ़ों पर बैठ कर दरांती और हथौड़े की ज़र्बों की बातें करते हैं।
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हसीन चीज़ एक दायमी मुसर्रत है। आर्ट जहां भी मिले हमें उसकी क़दर करनी चाहिए।
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सोसाइटी के उसूलों के मुताबिक़ मर्द मर्द रहता है ख़्वाह उसकी किताब-ए-ज़िंदगी के हर वर्क़ पर गुनाहों की स्याही लिपि हो। मगर वो औरत जो सिर्फ़ एक मर्तबा जवानी के बे-पनाह जज़्बे के ज़ेर-ए-असर या किसी लालच में आकर या किसी मर्द की ज़बरदस्ती का शिकार हो कर एक लम्हे के लिए अपने रास्ते से हट जाए, औरत नहीं रहती। उसे हक़ारत-ओ-नफ़रत की निगाहों से देखा जाता है। सोसाइटी उस पर वो तमाम दरवाज़े बंद कर देती है जो एक स्याह पेशा मर्द के लिए खुले रहते हैं।
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आप शहर में ख़ूबसूरत और नफ़ीस गाड़ियाँ देखते हैं... ये ख़ूबसूरत और नफ़ीस गाड़ियाँ कूड़ा करकट उठाने के काम नहीं आ सकतीं। गंदगी और ग़लाज़त उठा कर बाहर फेंकने के लिए और गाड़ियाँ मौजूद हैं जिन्हें आप कम देखते हैं और अगर देखते हैं तो फ़ौरन अपनी नाक पर रूमाल रख लेते हैं... इन गाड़ियों का वुजूद ज़रूरी है और उन औरतों का वुजूद भी ज़रूरी है जो आपकी ग़लाज़त उठाती हैं। अगर ये औरतें ना होतीं तो हमारे सब गली कूचे मर्दों की ग़लीज़ हरकात से भरे होते।
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वेश्या का वजूद ख़ुद एक जनाज़ा है जो समाज ख़ुद अपने कंधों पर उठाए हुए है। वो उसे जब तक कहीं दफ़्न नहीं करेगा, उसके मुताल्लिक़ बातें होती रहेंगी।
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कौन नहीं जानता कि रंडी के कोठे पर माँ-बाप अपनी औलाद से पेशा कराते हैं और मक़्बरों और तकियों में इन्सान अपने ख़ुदा से।
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टैग : समाज
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जो दरवाज़े मआशी कश्मकश ने एक दफ़ा खोल दिए हों, बहुत मुश्किल से बंद किए जा सकते हैं।
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टैग : ज़िंदगी
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अगर वेश्या का ज़िक्र फ़ोह्श है तो उसका वजूद भी फ़ोह्श है। अगर उसका ज़िक्र मम्नूअ है तो उसका पेशा भी मम्नूअ होना चाहिए। उसका ज़िक्र ख़ुद ब-ख़ुद मिट जाएगा।
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मेरा ख़्याल है कि कोई भी चीज़ फ़ोह्श नहीं, लेकिन घर की कुर्सी और हांडी भी फ़ोह्श हो सकती है अगर उनको फ़ोह्श तरीक़े पर पेश किया जाए... चीज़ें फ़ोह्श बनाई जाती हैं, किसी ख़ास ग़रज़ के मा-तहत। औरत और मर्द का रिश्ता फ़ोह्श नहीं, उसका ज़िक्र भी फ़ोह्श नहीं, लेकिन जब इस रिश्ते को चौरासी आसनों या जोड़दार खु़फ़ीया तस्वीरों में तबदील कर दिया जाए तो मैं इस फे़अ्ल को सिर्फ फ़ोह्श ही नहीं बल्कि निहायत घिनावना, मकरूह और ग़ैर सेहत-मंद कहूँगा।
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मैं अफ़्साना इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफ़्साना-निगारी की शराब की तरह लत पड़ गई है। मैं अफ़्साना ना लिखूँ तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने, या मैंने ग़ुस्ल नहीं किया, या मैंने शराब नहीं पी।
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मज़हब ख़ुद एक बहुत बड़ा मस्अला है, अगर इस में लपेट कर किसी और मस्अले को देखा जाए तो हमें बहुत ही मग़्ज़-दर्दी करनी पड़ेगी।
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वेश्याओं के इश्क़ में एक ख़ास बात काबिल-ए-ज़िक्र है। उनका इशक़ उनके रोज़मर्रा के मामूल पर बहुत कम असर डालता है।
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वो लोग जो मुझे या मेरे मिज़ाज के आदमियों को हक़ारत की नज़रों से देखते हैं उनके मुतअल्लिक़ मुझे अफ़सोस से कहना पड़ेगा कि वो शे'अरियत से यकसर ख़ाली हैं। ड्रामे को समझने और इससे हज़ उठाने की सलाहियत उनमें ज़र्रा भर नहीं।
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टैग : मानव प्रकृति
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हिन्दुस्तान में अभी तक आर्टिस्ट के सही मआनी पेश नहीं किए गए। आर्ट को ख़ुदा मालूम क्या चीज़ समझा जाता है। यहाँ आर्ट एक रंग से भरा हुआ बर्तन है जिसमें हर शख़्स अपने कपड़े भिगो लेता है, लेकिन आर्ट ये नहीं है और ना वो तमाम लोग आर्टिस्ट हैं जो अपने माथों पर लेबल लगाए फिरते हैं। हिन्दुस्तान में जिस चीज़ को आर्ट कहा जाता है, अभी तक मैं उस के मुताल्लिक़ फ़ैसला ही नहीं कर सका कि वो क्या है?
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आर्ट ख़्वाह वो तस्वीर की सूरत में हो या मुजस्समे की शक्ल में। सोसाइटी के लिए क़तई तौर पर एक पेशकश है।
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