खुर्शीद अकबर के शेर
साहिल से सुना करते हैं लहरों की कहानी
ये ठहरे हुए लोग बग़ावत नहीं करते
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हम भी तिरे बेटे हैं ज़रा देख हमें भी
ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से शिकायत नहीं करते
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टैग : वतन-परस्ती
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दर्द का ज़ाइक़ा बताऊँ क्या
ये इलाक़ा ज़बाँ से बाहर है
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टैग : दर्द
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चेहरे हैं कि सौ रंग में होते हैं नुमायाँ
आईने मगर कोई सियासत नहीं करते
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यहाँ तो रस्म है ज़िंदों को दफ़्न करने की
किसी भी क़ब्र से मुर्दा कहाँ निकलता है
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क़ुरआन का मफ़्हूम उन्हें कौन बताए
आँखों से जो चेहरों की तिलावत नहीं करते
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दुनिया को रौंदने का हुनर जानता हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि दुनिया के बा'द क्या
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ज़िंदगी! तुझ को मगर शर्म नहीं आती क्या
कैसी कैसी तिरी तस्वीर निकल आई है
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सिसकती आरज़ू का दर्द हूँ फ़ुटपाथ जैसा हूँ
कि मुझ में छटपटाता शहर-ए-कलकत्ता भी रहता है
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टैग : कोलकाता
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बदन में साँस लेता है समुंदर
मिरी कश्ती हवा पर चल रही है
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मेरे उस के बीच का रिश्ता इक मजबूर ज़रूरत है
मैं सूखे जज़्बों का ईंधन वो माचिस की तीली सी
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लहू तेवर बदलता है कहाँ तक
मिरा बेटा सियाना हो तो देखूँ
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ग़रीबी काटना आसाँ नहीं है
वो सारी उम्र पत्थर काटता है
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ग़ैब का ऐसा परिंदा है ज़मीं पर इंसाँ
आसमानों को जो शह-पर पे उठाए हुए है
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टैग : इंसान
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बड़ी भोली है ख़र्चीली ज़रूरत
शहंशाही कमाई माँगती है
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दलीलें छीन कर मेरे लबों से
वो मुझ को मुझ से बेहतर काटता है
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आते आते आएगी दुनिया-दारी
जाते जाते फ़ाक़ा-मस्ती जाएगी
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ख़ुद से लिखने का इख़्तियार भी दे
वर्ना क़िस्मत की तख़्तियाँ ले जा
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दिल है कि तिरे पाँव से पाज़ेब गिरी है
सुनता हूँ बहुत देर से झंकार कहीं की
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कश्ती की तरह तुम मुझे दरिया में उतारो
मैं बीच भँवर में तुम्हें पतवार बनाऊँ
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सुलगती प्यास ने कर ली है मोरचा-बंदी
इसी ख़ता पे समुंदर ख़िलाफ़ रहता है
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न जाने कितने भँवर को रुला के आई है
ये मेरी कश्ती-ए-जाँ ख़ुद को पार करती हुई
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मुट्ठी से रेत पाँव से काँटा निकल न जाए
मैं देखता रहूँ कहीं दुनिया निकल न जाए
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मर्सिया हूँ मैं ग़ुलामों की ख़ुश-इल्हामी का
शाह के हक़ में क़सीदा नहीं होने वाला
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जज़ीरे उग रहे हैं पानियों में
मगर पुख़्ता किनारा जा रहा है
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ख़ुदा के ग़ाएबाने में किसी दिन
सुनो क्या शहर सारा बोलता है
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रोता हूँ तो सैलाब से कटती हैं ज़मीनें
हँसता हूँ तो ढह जाते हैं कोहसार मिरी जाँ
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समुंदर आसमाँ इस पर सितारों का सफ़ीना
मिरा महताब-ए-ग़म है बे-करानी देखने में
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ऐ शहर-ए-सितम-ज़ाद तिरी उम्र बड़ी हो
कुछ और बता नक़्ल-ए-मकानी के अलावा
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न जाने क्या लिखा था उस ने दीवार-ए-बरहना पर
सलामत रह न पाई एक भी तहरीर पानी में
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शाम के तीर से ज़ख़्मी है 'ख़ुर्शीद' का सीना
नूर सिमट कर सुर्ख़ कबूतर बन जाता है
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ये कैसा शहर है मैं किस अजाइब-घर में रहता हूँ
मैं किस की आँख का पानी हूँ किस पत्थर में रहता हूँ
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वो एक आइना चेहरे की बात करता है
वो एक आइना पत्थर से है ज़ियादा क्या
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ये मेरा ख़ाक-दाँ रक्खा हुआ है
इसी में आसमाँ रक्खा हुआ है
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सहल क्या बार-ए-अमानत का उठाना है फ़लक
मैं सँभलता हूँ मिरे साथ सँभलती है ज़मीं
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जो दिन है ख़ाक-ए-बयाबाँ जो रात है जंगल
वो बे-पनाह मिरे घर से है ज़ियादा क्या
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