कलकत्ता में हर दम है 'मुनीर' आप को वहशत
हर कोठी में हर बंगले में जंगला नज़र आया
ख़्वाब आँसू एहतजाजी ज़िंदगी
पूछिए मत शहर-ए-कलकत्ता है क्या
सू-ए-कलकत्ता जो हम ब-दिल-ए-दीवाना चले
गुनगुनाते हुए इक शोख़ का अफ़्साना चले
सिसकती आरज़ू का दर्द हूँ फ़ुटपाथ जैसा हूँ
कि मुझ में छटपटाता शहर-ए-कलकत्ता भी रहता है
कलकत्ता में हर दम है 'मुनीर' आप को वहशत
हर कोठी में हर बंगले में जंगला नज़र आया
महरूम हूँ मैं ख़िदमत-ए-उस्ताद से 'मुनीर'
कलकत्ता मुझ को गोर से भी तंग हो गया
कोई छींटा पड़े तो 'दाग़' कलकत्ते चले जाएँ
अज़ीमाबाद में हम मुंतज़िर सावन के बैठे हैं
ला-मकाँ है वास्ते उन की मक़ाम-ए-बूद-ओ-बाश
गो ब-ज़ाहिर कहने को कलकत्ता और लाहौर है
कलकत्ता जो रहते थे
गाँव वाले हँसते थे