मुज़फ़्फ़र हनफ़ी के शेर
मौसम ने खेत-खेत उगाई है फ़स्ल-ए-ज़र्द
सरसों के खेत हैं के जो पीले नहीं रहे
रोती हुई एक भीड़ मिरे गिर्द खड़ी थी
शायद ये तमाशा मिरे हँसने के लिए था
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सुना ऐ दोस्तो तुम ने कि शायर हैं 'मुज़फ़्फ़र' भी
ब-ज़ाहिर आदमी कितने भले मालूम होते हैं
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बचपन में आकाश को छूता सा लगता था
इस पीपल की शाख़ें अब कितनी नीची हैं
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अब तक तो ख़ुद-कुशी का इरादा नहीं किया
मिलता है क्यूँ नदी के किनारे मुझे कोई
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भेड़िये और इश्तिराक-शुदा
बीच में इक हिरन हलाक-शुदा
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ग़मों पर मुस्कुरा लेते हैं लेकिन मुस्कुरा कर हम
ख़ुद अपनी ही नज़र में चोर से मालूम होते हैं
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मुझ से मत बोलो मैं आज भरा बैठा हूँ
सिगरेट के दोनों पैकेट बिल्कुल ख़ाली हैं
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अब तक तो ख़ुद-कुशी का इरादा नहीं किया
मिलता है क्यूँ नदी के किनारे मुझे कोई
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ग़मों पर मुस्कुरा लेते हैं लेकिन मुस्कुरा कर हम
ख़ुद अपनी ही नज़र में चोर से मालूम होते हैं
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काँटे बोने वाले सच-मुच तू भी कितना भोला है
जैसे राही रुक जाएँगे तेरे काँटे बोने से
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जब सराबों पे क़नाअत का सलीक़ा आया
रेत को हाथ लगाया तो वहीं पानी थी
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ऐ मुज़फ़्फ़र किस लिए भोपाल याद आने लगा
क्या समझते थे कि दिल्ली में न होगा आसमाँ
फ़र्क़ नहीं पड़ता हम दीवानों के घर में होने से
वीरानी उमड़ी पड़ती है घर के कोने कोने से
यूँ पलक पर जगमगाना दो घड़ी का ऐश है
रौशनी बन कर मिरे अंदर ही अंदर फैल जा
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ठप्पा लगा हुआ है 'मुज़फ़्फ़र' के नाम का
उस का कोई भी शेर कहीं से उठा के देख
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शुक्रिया रेशमी दिलासे का
तीर तो आप ने भी मारा था
देखना कैसे हुमकने लगे सारे पत्थर
मेरी वहशत को तुम्हारी गली पहचानती है
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आँगन में ये रात की रानी साँपों का घर काट इसे
कमरा अलबत्ता सूना है कोने में गुलदान लगा
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शिकस्त खा चुके हैं हम मगर अज़ीज़ फ़ातेहो
हमारे क़द से कम न हो फ़राज़-ए-दार देखना
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यूँ भी दिल्ली में लोग रहते हैं
जैसे दीवान-ए-मीर चाक शुदा
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उस ने मुझ को याद फ़रमाया यक़ीनन
जिस्म में आया हुआ है ज़लज़ला सा
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सुना ऐ दोस्तो तुम ने कि शायर हैं 'मुज़फ़्फ़र' भी
ब-ज़ाहिर आदमी कितने भले मालूम होते हैं
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कुछ भी हों दिल्ली के कूचे
तुझ बिन मुझ को घर काटेगा
सुनाइए वो लतीफ़ा हर एक जाम के साथ
कि एक बूँद से ईमान टूट जाता है
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मेरे तीखे शेर की क़ीमत दुखती रग पर कारी चोट
चिकनी चुपड़ी ग़ज़लें बे-शक आप ख़रीदें सोने से
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सुनता हूँ कि तुझ को भी ज़माने से गिला है
मुझ को भी ये दुनिया नहीं रास आई इधर आ
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बताएँ क्या कि बेचैनी बढ़ाते हैं वही आ कर
बहुत बेचैन हम जिन के लिए मालूम होते हैं
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काँटों में रख के फूल हवा में उड़ा के ख़ाक
करता है सौ तरह से इशारे मुझे कोई
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इस खुरदुरी ग़ज़ल को न यूँ मुँह बना के देख
किस हाल में लिखी है मिरे पास आ के देख
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खिलते हैं दिल में फूल तिरी याद के तुफ़ैल
आतिश-कदा तो देर हुई सर्द हो गया
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सिवाए मेरे किसी को जलने का होश कब था
चराग़ की लौ बुलंद थी और रात कम थी
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शाख़ों पर इबहाम के पैकर लटक रहे हैं
लफ़्ज़ों के जंगल में मअनी भटक रहे हैं
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