अब्दुल हमीद के शेर
फ़लक पर उड़ते जाते बादलों को देखता हूँ मैं
हवा कहती है मुझ से ये तमाशा कैसा लगता है
दिन गुज़रते हैं गुज़रते ही चले जाते हैं
एक लम्हा जो किसी तरह गुज़रता ही नहीं
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लौट गए सब सोच के घर में कोई नहीं है
और ये हम कि अंधेरा कर के बैठ गए हैं
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उतरे थे मैदान में सब कुछ ठीक करेंगे
सब कुछ उल्टा सीधा कर के बैठ गए हैं
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लोगों ने बहुत चाहा अपना सा बना डालें
पर हम ने कि अपने को इंसान बहुत रक्खा
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ये क़ैद है तो रिहाई भी अब ज़रूरी है
किसी भी सम्त कोई रास्ता मिले तो सही
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पाँव रुकते ही नहीं ज़ेहन ठहरता ही नहीं
कोई नश्शा है थकन का कि उतरता ही नहीं
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दूर बस्ती पे है धुआँ कब से
क्या जला है जिसे बुझाते नहीं
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एक मिश्अल थी बुझा दी उस ने
फिर अंधेरों को हवा दी उस ने
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बरसते थे बादल धुआँ फैलता था अजब चार जानिब
फ़ज़ा खिल उठी तो सरापा तुम्हारा बहुत याद आया
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ज़वाल-ए-जिस्म को देखो तो कुछ एहसास हो इस का
बिखरता ज़र्रा ज़र्रा कोई सहरा कैसा लगता है
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दम-ब-दम मुझ पे चला कर तलवार
एक पत्थर को जिला दी उस ने
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