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अब्दुल वहाब यकरू

अहम क्लासिकी शायर, उर्दू शायरी के आरंभिक दौर के शायरों में शामिल, आबरू के शागिर्द

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अब्दुल वहाब यकरू के शेर

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जभी तू पान खा कर मुस्कुराया

तभी दिल खिल गया गुल की कली का

प्यासा मत जला साक़ी मुझे गर्मी सीं हिज्राँ की

शिताबी ला शराब-ए-ख़ाम हम ने दिल को भूना है

जने देखा सो ही बौरा हुआ है

तिरे तिल हैं मगर काला धतूरा

जो तूँ मुर्ग़ा नहीं है ज़ाहिद

क्यूँ सहर गाह दे है उठ के बाँग

होवे क्यूँ के गर्दूं पे सदा दिल की बुलंद अपनी

हमारी आह है डंका दमामे के बजाने का

ख़म-ए-मेहराब-ए-अबरुवाँ के बीच

काम आँखों का है इमामत का

इश्क़ के फ़न नीं हूँ मैं अवधूत

तिरे दर पे बिठा हूँ मल के भभूत

इश्क़ का तिफ़्ल गिर ज़मीं ऊपर

खेल सीखा है ख़ाक-बाज़ी का

रक़ीबान-ए-सियह-रू शहर-ए-देहली के मुसाहिब हैं

गंदा नाला भी जा कर मिल रहा है देख जमुना कूँ

कमाँ अबरू निपट शह-ज़ोर हैगा

कि शाख़-ए-आश्नाई तोड़ डाली

जब कि पहरा है तीं लिबास ज़र्रीं

इक क़द-आदम हुई है आग बुलंद

जिगर में ल'अल के आतिश पड़ी है

मगर तुझ लब उपर हाँ की धड़ी है

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