अफ़ज़ल हज़ारवी के शेर
अंदर से मैं टूटा-फूटा एक खंडर वीराना था
ज़ाहिर जो ता'मीर न होती तो मैं यारो क्या करता
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मुस्काती आँखों में अक्सर
देखे हम ने रोते ख़्वाब
पंछी सारे पेड़ से उड़ जाएँगे
सहन में इक ख़ामुशी रह जाएगी
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सफ़ीना हो रहा है ग़र्क़-ए-तूफ़ाँ
निगाहों से किनारे जा रहे हैं
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खेत जल-थल कर दिए सैलाब ने
मर गए अरमान सब दहक़ान के
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